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आदिपुराणम्
नवमास स्थिता गर्ने रत्नगर्भगृहोपमे । यत्र दम्पतितामेत्य जायन्ते दानिनो नराः ॥ ६८ ॥ यदा दम्पतिसंभूति'र्जनयिनोः परासुता । तदैव तत्र पुत्रादिसंकल्पो यन्न देहिनाम् ॥६९॥ क्षुत जृम्मितमात्रेण यत्राहुर्मृतिमङ्गिनाम् । स्वभावमार्दवाद् यान्ति दिवमेव यदुद्भवाः ॥ ७० ॥ देहोच्छ्रायं नृणां यत्र नानालक्षणसुन्दरम् । धनुषां षट्सहस्राणि विवृण्वन्स्याप्तसूक्तयः ॥ ७१ ॥ पल्यत्रयमितं यत्र देहिनामायुरिख्यते । दिनश्रयेण चाहारः कुवलीफलमात्रकः ॥७२॥ "यद्भुवां न जरातङ्का न वियोगो न शोचनम् । नानिष्टसंप्रयोगश्च न चिन्ता दैन्यमेव च ॥ ७३ ॥ न निद्रा नातितन्द्राणं नात्युन्मेषनिमेषणम् । न शारीरमलं यत्र न लालास्वेदसंभवः ॥७४॥ न यत्र विरहोम्मादो न यत्र मदनज्वरः । न यत्र खण्डना भोगे सुखं यत्र निरन्तरम् ॥ ७५ ॥ न विषादो भयं ग्लानिर्नारुचिः कुपितं चन । न कार्पण्यमनाचारो न बली यत्र नाबलः ॥७६॥ 'बालार्कसम निर्माषा निःस्वेदा नीरजोऽम्बराः । यत्र पुण्योदयानित्यं रं रम्यन्ते नराः सुखम् ॥७७॥ दशाङ्गतरुसंभूत मोगानु भवनोद्भवम् । सुखं यत्रातिशेते तां चक्रिणो भोगसंपदम् ॥७८॥
यत्र दीर्घायुषां नृणां नाकाण्डे " मृत्युसंभवः । निरुपद्रवमायुः स्वं जीवन्त्युक्तप्रमाणकम् ॥ ७९ ॥
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हो जाते हैं ||६७|| पूर्वभवमें दान देनेवाले मनुष्य ही जहाँ उत्पन्न होते हैं । वे उत्पन्न होने के पहले नौ माह तक गर्भ में इस प्रकार रहते हैं जिस प्रकार कि कोई रत्नोंके महल में रहता है। उन्हें गर्भ में कुछ भी दुःख नहीं होता । और स्त्री-पुरुष साथ-साथ ही पैदा होते हैं । वे दोनों स्त्रीपुरुष दम्पतिपनेको प्राप्त होकर ही रहते हैं ||६८|| चूँकि वहाँ जिस समय दम्पतिका जन्म होता है उसी समय उनके माता-पिताका देहान्त हो जाता है इसलिए वहाँ के जीवोंमें पुत्र आदिका संकल्प नहीं होता ||६९॥ जहाँ केवल छींक और जँभाई लेने मात्रसे ही प्राणियोंकी मृत्यु हो जाती है अर्थात् अन्त समयमें माताको छींक और पुरुषको जँभाई आती है । जहाँ उत्पन्न होनेवाले जीव स्वभावसे कोमलपरिणामी होनेके कारण स्वर्गको ही जाते हैं ७० ॥ जहाँ उत्पन्न होनेवाले लोगोंका शरीर अनेक लक्षणोंसे सुशोभित तथा छह हजार धनुष ऊँचा होता है ऐसा आप्तप्रणीत आगम स्पष्ट वर्णन करते हैं ॥ ७१ ॥ जहाँ जीवोंकी आयु तीन पल्य प्रमाण होती है। और आहार तीन दिनके बाद होता है, वह भी बदरीफल ( छोटे बेरके) बराबर ॥ ७२ ॥ उत्पन्न हुए जीवों न बुढ़ापा आता है, न रोग होता है, न विरह होता है, न शोक होता है, न अनिष्टका संयोग होता है, न चिन्ता होती है, न दीनता होती है, न नींद आती है, न आलस्य आता है, न नेत्रोंके पलक झपते हैं, न शरीर में मल होता है, न लार बहती है और न पसीना ही आता है ।। ७३-७४ ।। जहाँ न विरहका उन्माद है, न कामज्वर है, न भोगोंका विच्छेद है किन्तु निरन्तर सुख ही सुख रहता है ।। ७५ । जहाँ न विषाद है, न भय है, न ग्लानि है, न अरुचि है, न क्रोध है, न कृपणता है, न अनाचार है, न कोई बलवान् है और न कोई निर्बल है ||७६|| जहाँ के मनुष्य बालसूर्यके समान देदीप्यमान, पसीनारहित और स्वच्छ वस्त्रोंके धारक होते हैं तथा पुण्यके उदयसे सदा सुखपूर्वक क्रीड़ा करते रहते हैं ॥७७॥ जहाँ दश प्रकारके कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुए भोगोंके अनुभव करनेसे उत्पन्न हुआ सुख चक्रवर्तीकी भोगसम्पदाओंका भी उल्लंघन करता है अर्थात् वहाँके जीव चक्रवर्तीको अपेक्षा अधिक सुखी रहते हैं ||७८|| जहाँ मनुष्य बड़ी लम्बी आयुके धारक होते हैं उनकी असमयमें मृत्यु नहीं होती । वे अपनी तीन पल्य प्रमाण आयु तक निर्विघ्न रूपसे जीवित रहते हैं ॥ ७९ ॥
१. जननीजनकयोः । २. जृम्भण ! ३. विवरणं कुर्वन्ति । ४. बदरम् । ५. यत्रोत्पन्नानाम् । ६. तन्द्रा । ७. हर्षक्षयः । ८. कोपः ९. तरुणार्कसदृशशरीरुचः । १०. अकाले ।