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नवमं पर्व
सोत्पला दीर्घिका यत्र विदलत्कनकाम्बुजाः । हंसानां कलमन्द्रेण विरुतेन मनोहराः ॥५५॥ सरांस्युत्फुल्लपमानि वनमुन्मत्तकोकिलम् । क्रीडादयश्च रुचिराः सन्ति यत्र पदे पदे ॥५६॥ यत्राधूय तरून्मन्दमावाति मृदुमारुतः। पटवासमिवातन्वन् मकरन्दरजोऽमितः ॥५७।। यत्र गन्धवहाभूतैराकीर्णा पुष्परेणुमिः। वसुधा राजते पीत क्षौमेणेवावकुण्ठिता ॥५॥ यत्रामोदित दिग्मागैः मरुद्भिः पुष्पजं रजः । नभसि श्रियमाधत्ते वितानस्यामितो हृतम् ॥५६॥ यत्र नातपसंबाधा न वृष्टिर्न हिमादयः । नेतयो दन्दशूका वा प्राणिनां भयहेतवः ॥६॥ न ज्योत्स्ना नाप्यहोरात्रविभागो नर्तुं संक्रमः । नित्यैकवृत्तयो भावा यत्रैषां सुखहेतवः ॥६॥ वनानि नित्यपुष्पाणि नलिन्यो नित्यपङ्कजाः। यत्र नित्यसुखा देशा रखपांसुमिराचिताः ॥६॥ यत्रोत्पन्नवतां दिव्यमङ्गुल्याहारमुद्रसम् । वदन्त्युत्तानशम्यायामासप्ताहव्यतिक्रमात् ॥६॥ ततो देशान्तरं तेषामामनन्ति मनीषिणः । दम्पतीनां महीररिलिणां दिनसप्तकम् ॥६॥ सप्ताहेन परेणाथ प्रोत्थाय कलमाषिणः । स्खलद्गति सहेलं च संचरन्ति महीतले ॥६५॥ ततः स्थिरपदन्यासैर्वजन्ति दिनसप्तकम् । कलाशानेन सप्ताह निर्विशन्ति गुणश्च ते ॥६६॥ परेण सप्तरात्रेण सम्पूर्णनवयौवनाः । लसदंशुकसद्भषा जायन्ते मोगमागिनः ॥६७n
स्वादिष्ट, कोमल और मनोहर तृणरूपी सम्पत्तिको रसायन समझकर बड़े हर्षसे चरा करते हैं।॥५४॥ जहाँ अनेक वापिकाएँ हैं जो कमलोंसे सहित हैं,उनमें सुवर्णके समान पीले कमल फूल रहे हैं और जो हंसोंके मधर तथा गम्भीर शब्दोंसे अतिशय मनोहर जान पड़ती हैं॥५५||जहाँ जगह-जगहपर फूले हुए कमलोंसे सुशोभित तालाब, उन्मत्त कोकिलाओंसे भरे हुए वन और सुन्दर कीड़ापर्वत हैं ।।५६।। जहाँ कोमल वायु वृक्षोंको हिलाता हुआ धीरे-धीरे बहता रहता है। वह वायु बहते समय सब ओर कमलोंकी परागको उड़ाता रहता है जिससे ऐसा मालूम होता है मानो सब ओर सुगन्धित चूर्ण ही फैला रहा हो ॥ ५७॥ जहाँ वायुके द्वारा उड़कर आये हुए पुष्पपरागसे ढकी हुई पृथ्वी ऐसो शोभायमान हो रही है मानो पीले रंगके रेशमी वनसे ढकी हो ॥५८ ॥ जहाँ दशों दिशाओं में वायुके द्वारा उड़-उड़कर आकाशमें इकट्ठा हुआ पुष्पपराग सब ओरसे तने हुए चँदोवाकी शोभा धारण करता है ।। ५९ ॥ जहाँ न गरमीका क्लेश होता है, न पानी बरसता है, न तुषार आदि पड़ता है, न अतिवृष्टि आदि ईतियाँ हैं और न प्राणियोंको भय उत्पन्न करनेवाले साँप,बिच्छू, खटमल आदि दुष्ट जन्तु ही हुआ करते हैं।।६०।। जहाँ न चाँदनी है, न रात-दिनका विभाग और न ऋतुओंका परिवर्तन ही है, जहाँ सुख देनेवाले सब पदार्थ सदा एक-से रहते हैं ।।६१।। जहाँके वन सदा फूलोंसे युक्त रहते हैं, कमलिनियोंमें सदा कमल लगे रहते हैं, और रत्नकी धूलिसे व्याप्त हुए देश सदा सुखी रहते हैं। ६२ । जहाँ उत्पन्न हुए आर्य लोग प्रथम सात दिन तक अपनी शय्यापर चित्त पड़े रहते हैं। उस समय भाचार्योंने हाथका रसीला अंगूठा चूसना ही उनका दिव्य आहार बतलाया है।।६।। तत्पश्चात् विद्वानोंका मत है कि वे दोनों दम्पती द्वितीय सप्ताहमें पृथ्वीरूपी रंगभूमिमें घुटनों के बल अलते हुए एक स्थानसे दूसरे स्थान तक जाने लगते हैं ।। ६४ ॥ तदनन्तर तीसरे सप्ताहमें वे खड़े होकर अस्पष्ट किन्तु मीठी-मीठी बातें कहने लगते हैं और गिरते-पड़ते खेलते हुए जमीनपर चलने लगते हैं ॥६५॥ फिर चौथे सप्ताहमें अपने पैर स्थिरतासे रखते हुए चलने लगते हैं तथा पाँचवें सप्ताहमें अनेक कलाओं और गुणोंसे सहित हो जाते हैं ॥६६॥ छठे सप्ताहमें पूर्ण जवान हो जाते हैं और सातवें सप्ताहमें अच्छे-अच्छे वस्त्राभूषण धारण कर भोग भोगनेवाले
१. वासचूर्णम् । २. स्वर्णवर्णपट्टवस्त्रेण। ३. आच्छादिता। -गुण्ठिता अ०, १०, स०, ८० । ४. पदार्थाः । ५. उद्गतरसम् । ६. अनुभवन्ति ।