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आदिपुराणम् शमाद् दर्शनमोहस्य सम्यक्स्वादानमादितः' । जन्तोरनादिमिथ्यात्वकलङ्ककलि लात्मनः ॥१७॥ यथा पित्तोदयोद्धान्तस्वान्तवृत्तेस्तदत्ययात् । यथार्थदर्शनं तद्वदन्तर्मोहोपशान्तितः ॥११॥ अनिर्द्ध य तमो नैशं तथा नोदयतें शुमान् । तथानुझिय मिथ्यात्वतमो नोदेति दर्शनम् ॥११९॥ विधा विपाव्य मिथ्यात्वप्रकृति करणेचिमिः । मग्यारमा हासयन् कर्मस्थिति सम्यक्त्वमाग मवेत्॥१२०॥ आप्तागमपदार्थानां श्रद्धानं परया मुदा । सम्यग्दर्शनमाम्नातं तन्मूले ज्ञानचेष्टिते ॥२१॥ 'प्रात्मादिमुक्तिपर्यन्ततस्वश्रद्धानमअसा । त्रिमिद्रनालीढमटाकं विद्धि दर्शनम् ॥२२॥ तस्य प्रशमसंवेगावास्तिक्यं चानुकम्पनम् । गुणाः श्रदारूचिस्पर्शप्रत्ययात्रेति पर्ययाः ॥१२॥ तस्य निःशक्तिस्वादीन्यष्टावनानि निबिनु । पैरंशुमिरिवाभाति रत्नं सदर्शनाइयम् ॥१२॥ शङ्का जहीहि सन्मागें भोगकाक्षामपाकुरु । विचिकित्साद्वयं हित्वा भजस्वामूढदृष्टिताम् ॥१२५॥ कुरूपवृहणं धर्म मलस्थाननिगृहनेः। मार्गाच्चलति धर्मस्थे स्थितीकरणमाचर ॥१२६॥ रत्नत्रितयवत्यार्यसवात्सल्यमातनु । विधेहि शासने जैने यथाशक्ति प्रभावनाम् ॥१२७॥
देवतालोकपाषण्डम्यामोहांश्च समुत्सृज । मोहान्धो हि जमस्तत्वं पश्यत्रापि न पश्यति ॥१२८॥ यह भव्य प्राणी विशुद्ध सम्यग्दर्शनका धारक होसकता है॥११६॥ जिस जीवका आत्मा अनादिकालसे लगे हुए मिथ्यात्वरूपी कलंकसे दूषित हो रहा है, उस जीवको सबसे पहले दर्शनमोहनीय कर्मका उपशम होनेसे औपशमिक सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है ॥११७। जिस प्रकार पित्तके उदयसे उद्भ्रान्त हुई चित्तवृत्तिका अभाव होनेपर क्षीर आदि पदार्थोके यथार्थस्वरूपका परिज्ञान होने लगता है उसी प्रकार अन्तरङ्ग कारणरूप मोहनीय कर्मका उपशम होनेपर जीव आदि पदार्थोंके यथार्थस्वरूपका परिझान होने लगता है ॥११॥ जिस प्रकार सूर्य रात्रिसम्बन्धी अन्धकारको दूर किये बिना उदित नहीं होता उसी प्रकार सम्यग्दर्शन मिथ्यात्वरूपी अन्धकारको दर किये बिना उदित नहीं होता-प्राप्त नहीं होता ॥११९|| यह भव्य जीव, अधाकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन करणों द्वारा मिथ्यात्वप्रकृतिके मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप तीन खण्ड करके कर्मोंकी स्थिति कम करता हुआ सम्यग्दृष्टि होता है ॥१२०॥ वीतराग सर्वज्ञ देव, आप्तोपज्ञ, आगम और जीवादि पदार्थोंका बड़ी निष्ठासे श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन माना गया है। यह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका मूल कारण है। इसके बिना वे दोनों नहीं हो सकते ॥१२॥ जीवादि सात तत्वोंका तीन मूढतारहित और आठ अंगसहित यथार्थ श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है ॥१२२॥ प्रशम, संवेग, आस्तिक्य और अनुकम्पा ये चार सम्यग्दर्शनके गुण हैं और श्रद्धा, रुचि, स्पर्श तथा प्रत्यय ये उसके पर्याय हैं ॥१२३॥ निशंकित, निकाक्षित, निर्विचिकित्सा, अमृददृष्टि, उपगूहन, वात्सल्य, स्थितिकरण और प्रभावना ये सम्यग्दर्शनके आठ अंग हैं। इन आठ अंगरूपी किरणोंसे सम्यग्दर्शनरूपी रन बहुत ही शोभायमान होता है ।। १२४॥ हे आर्य, तू इस श्रेष्ठ जैनमार्गमें शंकाको छोड़-किसी प्रकारका सन्देह मत कर, भोगोंको इच्छा दूर कर, ग्लानिको छोड़कर अमूढदृष्टि (विवेकपूर्ण दृष्टि) को प्राप्त कर दोषके स्थानोंको छिपाकर समीचीन धर्मको वृद्धि कर, मार्गसे विचलित होते हुए धर्मात्माका स्थितीकरण कर, रखत्रयके धारक आर्य पुरुषोंके संघमें प्रेमभावका विस्तार कर और जैन-शासनकी शक्तिके अनुसार प्रभावना कर ॥१२५-१२७।। देवमूढ़ता, लोकमढ़ता और
१. प्रथमोपशमसम्यक्त्वादानम् । २. दूषित । ३. निशाया इदम् । ४. मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वप्रकृतिभेदेन । ५. तदर्शनं मूलं कारणं ययोः। ६. ज्ञानचारित्र। ७. जीवादिमोक्षपर्यन्तसप्ततत्त्वश्रद्धानम् । ८. स्वपराश्रयभेदेन द्वयम् । .