________________
नवमं पर्व
२०३ सापि सम्यक्स्वलाभेन नितरामतुषत् सती। विशुद्धपुंस्त्वयोगेन निर्वाणममिलाषुका ॥१५॥ अलब्धपूर्वमास्वाद्य सदर्शनरसायनम् । प्रापतुस्तौ परां पुष्टिं धर्म कर्मनिवर्हणे ॥१५२॥ शार्दूलार्यादयोऽप्याभ्यां समं सद्दर्शनामृतम् । तथा भेजुर्गुरोरस्य पादमूलमुपाश्रिताः ॥१५३॥ तौ दम्पती'कृतानन्दसंदर्शितमनोरथौ। मुनीन्द्रौ धर्मसंवेगाच्चिरस्यास्पृक्षता मुहुः ॥१५॥ जन्मान्तरनिबद्धन प्रेम्णा 'विस्फारितेक्षणः । अणं मुनिपदाम्भोजसंस्पर्शात् सोऽन्वभूद तिम् ॥१५५॥ कृतप्रणाममाशीमिराशास्य तमनुस्थितम् । ततो यथोचितं देशं तावृषी गन्तुमुद्यतौ ॥५६॥ पुनदर्शनमस्त्वार्य सद्धर्म मा स्म विस्मरः । इत्युक्त्वान्तहिती सघश्चारणौ व्योमचारिणौ ॥१५७॥ गतेऽथ चारणद्वन्द्वे सोऽम दुत्कण्ठितः क्षणम् । प्रेयसां विप्रयोगो हि मनस्तापाय कल्प्यते ॥१५॥ मुहुर्मुनिगुणाध्यानै रायमात्मनो मनः । इति चिन्तामसौ भेजे चिरं धर्मानुबन्धिनीम् ॥१५५॥ धुनोति दवथु स्वान्तात् तनोत्यानन्दधुं परम् । धिनोति च मनोवृत्तिमहो साधुसमागमः ॥१६॥
मुष्णाति दुरितं दूरात् परं पुष्णाति योग्यताम् । मयः श्रेयोऽनुबध्नाति प्रायः साधुसमागमः ॥१६॥ में पिरोयी हुई मनोहर मालाको प्राप्त कर अपनी राज्यलक्ष्मीके युवराज पदपर स्थित होता है उसी प्रकार वह वनजंघका जीव भी सूत्र (जैन सिद्धान्त) में पिरोयी हुई मनोहर सम्यग्दर्शनरूपी कण्ठमालाको प्राप्त कर मुक्तिरूपी राज्यसम्पदाके युवराज-पदपर स्थित हुआ था ॥१५०।। विशुद्ध पुरुषपर्यायके संयोगसे निर्वाण प्राप्त करनेकी इच्छा करती हुई वह सती आर्या भी सम्यक्त्वकी प्राप्तिसे अत्यन्त सन्तुष्ट हुई थी॥ १५१ ॥ जो पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ है ऐसे सम्यग्दर्शनरूपी रसायनका आस्वाद कर वे दोनों ही दम्पती कर्म नष्ट करनेवाले जैन धर्ममें बड़ी दृढ़ताको प्राप्त हुए ॥ १५२ ।। पहले कहे हुए सिंह, वानर, नकुल और सूकरके जीव भी गुरुदेव-प्रीतिंकर मुनिके चरण-मूलका आश्रय लेकर आर्य वजंघ और आर्या श्रीमतीके साथ-साथ ही सम्यग्दर्शनरूपी अमृतको प्राप्त हुए थे ।। १५३ ॥ जिन्होंने हर्षसूचक चिह्नोंसे अपने मनोरथको सिद्धिको प्रकट किया है ऐसे दोनों दम्पतियोंको दोनों ही मुनिराज धर्मप्रेमसे बार-बार स्पर्श कर रहे थे ॥ १५४ । वह वनजंघका जीव जन्मान्तरसम्बन्धी प्रेमसे आँखें फाड़-फाड़कर श्री प्रीतिंकर मुनिके चरण-कमलोंकी ओर देख रहा था और उनके क्षण-भरके स्पर्शसे बहुत ही सन्तुष्ट हो रहा था ॥१५५।। तत्पश्चात् वे दोनों चारण मुनि अपने योग्य देशमें जानेके लिए तैयार हुए। उस समय वनजंघके जीवने उन्हें प्रणाम किया और कुछ दूर तक भेजनेके लिए वह उनके पीछे खड़ा हो गया। चलते समय दोनों मुनियोंने उसे आशीर्वाद देकर हितका उपदेश दिया और कहा कि हे आर्य, फिर भी तेरा दर्शन हो, तू इस सम्यग्दर्शनरूपी समीचीन धर्मको नहीं भूलना। यह कहकर वे दोनों गगनगामी मुनि शीघ्र ही अन्तर्हित हो गये ।। १५६-१५७ ॥
___ अनन्तर जब दोनों चारण मुनिराज चले गये तब वह वनजंघका जीव क्षण एक तक बहुत ही उत्कण्ठित होता रहा । सो ठीक ही है, प्रिय मनुष्योंका विरह मनके सन्तापके लिए ही होता है ।। १५८ ॥ वह बार बार मुनियोंके गुणोंका चिन्तवन कर अपने मनको आर्द्र करता हुआ चिर कालतक धर्म बढ़ानेवाले नीचे लिखे हुए विचार करने लगा ॥१५९।। अहा! कैसा आश्चर्य है कि साधु पुरुषोंका समागम हृदयसे सन्तापको दूर करता है, परम आनन्दको बढ़ाता है और मनकी वृत्तिको सन्तुष्ट कर देता है ।। १६० ॥ प्रायः साधु पुरुषोंका समागम दूरसे ही पापको नष्ट कर देता है, उत्कृष्ट योग्यताको पुष्ट करता है, और अत्यधिक कल्याणको
१. धृतानन्द-प०, अ०, द०, स० । २. विस्तारितेक्षणः अ० । ३. अन्तधिमगाताम् । ४. स्मरणः । ५. सन्तापम् । ६. आनन्दम् । ७. प्रीणयति ।