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आदिपुराणम् अपास्य लोक पापण्डदेवतासु विमूढताम् । परवीधरनालीढमुज्ज्वलीकुरु दर्शनम् ॥१४०॥ संसारगतिकायाम छिन्धि सदर्शनासिना। नासि नासतमव्यस्त्वं भविष्यत्तीर्थनायकः ॥१४॥ सम्क्यस्वमधिकृत्यैवमाप्तसूक्त्यनुसारतः । कृतार्य देशनास्मामि होषा श्रेयसे त्वया ॥१४२॥ स्वमप्यम्बावलम्बेथाः सम्यक्त्वमविलम्बितम् । मवाम्बुधेस्तरण तत् स्त्रैणात् किं वत खियसि ॥१३॥ सद्दष्टेः बीवनुत्पत्तिः पृथिवीष्वपि षट्स्वधः । त्रिषु देवनिकायेषु नीचेष्वन्येषु 'वाम्बिके ॥१४॥ धिगिदं णमश्लाघ्यं ग्रंन्थ्यपतिबन्धि यत् । कारीषाग्निनिमं वापं निराहुस्तत्र तद्विदः ॥१४५॥ तदेतत् णमुत्सृज्य सम्यगाराध्य दर्शनम् । प्राप्तासि परमस्थानसप्तक स्वमनुकमात् ॥१४॥ युवा कतिपयैरेव मवैः श्रेयोऽनुवन्धिमिः । ध्यानाग्निदग्धकर्माणौ प्राप्तास्थः परमं पदम् ॥१४॥ इति प्रीतिकराचार्यवचनं स प्रमालयन् । "सजानिरादधे सम्यग्दर्शनं प्रीतमानसः ॥१८॥ स सदर्शनमासाच सप्रियः पिप्रियेतराम् । पुष्णात्यलन्धलामो हि देहिनां महतीं तोम् ॥१४९॥
प्राप्य"सूत्रानुगां हयां सम्यग्दर्शनकण्ठिकाम् । यौवराज्यपदे सोऽस्थात् मुक्तिसाम्राज्यसम्पदः॥१५०॥ धरादि देव सम्यग्दर्शनको ही प्रधान अंग मानते हैं ॥१३९॥ हे आर्य, तू लोकमूढ़ता, पाषण्डिमूढ़ता और देवमूढ़ताका परित्याग कर जिसे मिथ्यादृष्टि प्राप्त नहीं कर सकते ऐसे सम्यग्दर्शनको उज्ज्वल कर-विशुद्ध सम्यग्दर्शन धारण कर ॥१४०॥ तू सम्यग्दर्शनरूपी तलवारके द्वारा संसाररूपी लवाकी दीर्घताको काट । त अवश्य ही निकट भव्य है और भविष्यतकालमें तीर्थकर होनेवाला है ॥१४१॥ हे आर्य, इस प्रकार मैंने अरहन्त देवके कहे अनुसार, सम्यगदर्शन विषयको लेकर, यह उपदेश किया है सो मोक्षरूपी कल्याणकी प्राप्तिके लिए तुझे यह अवश्य ही प्रहण करना चाहिए ॥१४२॥ इस प्रकार वे मुनिराज आर्य वजजंघको समझाकर आर्या श्रीमतीसे कहने लगे कि माता, तू भी बहुत शीघ्र हो संसाररूपी समुद्रसे पार करनेके लिए नौकाके समान इस सम्यग्दर्शनको ग्रहण कर। वृथा ही ब्रीपर्यायमें क्यों खेद-खिन्न हो रही है ?॥१४३।। हे माता, सब खियोंमें, रत्नप्रभाको छोड़कर नीचेकी छह पृथिवियोंमें भवनवासी व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें तथा अन्य नीच पर्यायोंमें सम्यग्दृष्टि जीवोंकी उत्पत्ति नहीं होती ॥१४४॥ इस निन्ध स्त्रीपर्यायको धिक्कार है जो कि निर्ग्रन्थ-दिगम्बर मुनिधर्म पालन करनेके लिए बाधक है और जिसमें विद्वानोंने करीष (कण्डाको आग) की अग्निके समान कामका सन्ताप कहा है ॥१४५॥ हे माता, अब तू निर्दोष सम्यग्दर्शनकी आराधना कर और इस खोपयोयको छोडकर क्रमसे सप्त परम स्थानको प्राप्त कर। भावार्थ-१'सज्जाति', २ 'सद्गृहस्थता' (श्रावकके व्रत), ३ 'पारिव्रज्य' (मुनियोंके व्रत), ४ 'सुरेन्द्र पद', ५ ‘राज्यपद' ६ 'अरहन्तपद', ७ 'सिद्धपद' ये सात परम स्थान (उत्कृष्टपद) कहलाते हैं । सम्यग्दृष्टि जीव क्रम-क्रमसे इन परम स्थानोंको प्राप्त होता है ।।१४६।। आप लोग कुछ पुण्य भवोंको धारण कर ध्यानरूपी अग्निसे समस्त कर्मोको भस्म कर परम पदको प्राप्त करोगे ॥१४॥
इस प्रकार प्रीतिंकर आचार्यके वचनोंको प्रमाण मानते हुए आर्य वनजंघने अपनी खीके साथ-साथ प्रसन्नचित्त होकर सम्यग्दर्शन धारण किया ॥१४८॥ वह वनजंघका जीव अपनी प्रियाके साथ-साथ सम्यग्दर्शन पाकर बहुत ही सन्तुष्ट हुआ। सो ठीक ही है, अपूर्व वस्तुका लाभ प्राणियोंके महान् सन्तोषको पुष्ट करता ही है ।।१४९॥ जिस प्रकार कोई राजकुमार सूत्र (तन्तु)
१. पाखण्ड-१०, ८० । पाखण्डि-म०, ल० । २. परशास्त्रैः परवादिभिर्वा । ३. अधिकारं कृत्वा । ४. शीघ्रम् । ५. कारणात् । ६. स्त्रीत्वात् । ७. विकलेन्द्रियजातिषु । ८. चाम्बिके द०। ९. लुटि मध्यमपुरुषकवचनम् । १०. 'सज्जातिः सद्गृहस्थत्वं पारिवाज्यं सुरेन्द्रता । साम्राज्यं परमाहन्त्यं निर्वाण चेति सप्तधा॥"११, आप्ल व्याप्ती लुटि । १२. सवनितः । १३, आगम। .