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नव पर्व
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इति प्रश्नावसानेऽस्य मुनिर्ज्यायानभाषत । दशनांशु जलोत्पीडैः क्षालयश्चिव तत्तनुम् ॥ १०४॥ स्वं विद्धि मां स्वयंक्रुद्धं यतो ऽबुद्धाः प्रबुद्धधीः । महाबलभवे जैनं धर्म कर्मनिवर्हणम् ॥ १०५ ॥ वद वियोगादहं जातनिर्वेदो बोधमाश्रितः । दीक्षित्वाऽभूवमुत्सृष्टदेहः सौधर्मकल्पजः ॥१०६ ॥ स्वयंप्रमविमानेऽग्रे मणिचूलाह्वयः सुरः । साधिकान्ध्युपमायुष्कः ततश्च्युत्वा भुवं श्रितः ॥ ३०७ ॥ जम्बूद्वीपस्थ पूर्वस्मिन् विदेहे पौष्कलावते । नगर्यां पुण्डरीकियां प्रियसेनमहीभृतः ॥ १०७ ॥ सुन्दर्याश्च सुतोऽभूवं ज्यायान् प्रीतिंकराह्वयः । प्रीतिदेवः कनीयान् मे मुनिरेष महातपाः ॥१०९ ॥ स्वयंप्रभजिनोपान्ते दीक्षित्वा वामलप्स्वहि । सावधिज्ञानमाकाशचारणत्वं तपोबलात् ॥ ११० ॥ बुद्ध्वाऽवधिमयं चक्षुर्व्यापार्या 'जयसंगतम् । स्वामार्यमिह संभूतं प्रबोधयितुमागतौ ॥ १११ ॥ 'विदाङ्करु 'कुरुष्वार्य पात्रदान विशेषतः । समुत्पन्नमिहात्मानं विशुद्धाद् दर्शनाद् विना ॥ ११२ ॥ महाबलंभवेऽस्मत्तो बुद्ध्वा त्यक्ततनुस्थितिः । नालब्ध" दर्शने शुद्धि भोगकाक्षानुबन्धतः ॥ ११३॥ तस्मात्ते दर्शनं सम्यग्विशेषणमनुत्तरम् । आयातौ दातुकामौ स्वः स्वर्मोक्षसुखसाधनम् ॥११४॥ तद्गृहाणाद्य सम्यक्त्वं तल्लाभे काल एष ते । काललब्ध्या बिना नार्य तदुत्पत्तिरिहाङ्गिनाम् ॥ ११५ ॥ देशनाकाललब्ध्यादिवाह्य कारणसंपदि । "अन्तःकरणसामग्रग्रां मध्यात्मा स्याद् विशुद्धकृत् ^ [दृक्]॥ ११६ ॥ चित बन्धु हैं || १०३ || इस प्रकार वज्रसंघका प्रश्न समाप्त होते ही ज्येष्ठ मुनि अपने दाँतों की किरणोंरूपी जलके समूहसे उसके शरीरका प्रक्षालन करते हुए नीचे लिखे अनुसार उत्तर देने लगे ॥१०४॥ हे आर्य, तू मुझे स्वयम्बुद्ध मन्त्रीका जीव जान, जिससे कि तूने महाबलके भवमें सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर कर्मोंका क्षय करनेवाले जैनधर्मका ज्ञान प्राप्त किया था ॥ १०५ ॥ उ भवमें तेरे वियोगसे सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर मैंने दीक्षा धारण की थी और आयुके अन्त में संन्यासपूर्वक शरीर छोड़ सौधर्म स्वर्गके स्वयम्प्रभ विमानमें मणिचूल नामका देव हुआ था । वहाँ मेरी आयु एक सागर से कुछ अधिक थी। तत्पश्चात् वहाँसे च्युत होकर भूलोक में उत्पन्न हुआ हूँ. ॥१०६-१०७॥ जम्बू द्वीपके पूर्वविदेह क्षेत्रमें स्थित पुष्कलावती देशसम्बन्धी पुण्डरीकिणी नगरीमें प्रियसेन राजा और उनकी महाराशी सुन्दरी देवीके प्रीतिंकर नामका बड़ा पुत्र हुआ हूँ और यह महातपस्वी प्रीतिदेव मेरा छोटा भाई है ।। १०८-१०९ ।। हम दोनों भाइयोंने भी स्वयंप्रभ जिनेन्द्रके समीप दीक्षा लेकर तपोबलसे अवधिज्ञान तथा आकाशगामिनी चारण ऋद्धि प्राप्त की है ॥ ११०॥ हे आर्य, हम दोनोंने अपने अवधिज्ञानरूपी नेत्रसे जाना है कि आप यहाँ उत्पन्न हुए हैं। चूँकि आप हमारे परम मित्र थे इसलिए आपको समझानेके लिए हम लोग यहाँ आ
॥ १११ ॥ हे आर्य, तू निर्मल सम्यग्दर्शनके बिना केवल पात्रदानकी विशेषतासे ही यहाँ उत्पन्न हुआ है यह निश्चय समझ ||११२|| महाबलके भवमें तूने हमसे ही तत्त्वज्ञान प्राप्त कर शरीर छोड़ा था परन्तु उस समय भोगोंकी आकांक्षा के वशसे तू सम्यग्दर्शनकी विशुद्धताको प्राप्त नहीं कर सका था ।। ११३ || अब हम दोनों, सर्वश्रेष्ठ तथा स्वर्ग और मोक्षसम्बन्धी सुखके प्रधान कारणरूप सम्यग्दर्शनको देनेकी इच्छासे यहाँ आये हैं ||११४|| इसलिए हे आर्य, आज सम्यग्दर्शन कर। उसके ग्रहण करनेका यह समय है क्योंकि काललब्धिके बिना इस संसार में जीवोंको सम्यग्दर्शनको उत्पत्ति नहीं होती है ।। ११५ || जब देशनालब्धि और काललब्ध आदि बहिरङ्ग कारण तथा करणलब्धिरूप अन्तरङ्ग कारण सामग्रीकी प्राप्ति होती है तभी
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१. प्रवाहैः । २. बुद्धघा अ० । ३. विनाशकम् । ४. पुष्कलावत्या अयं पौष्कलावतः तस्मिन् । ५. अविनाशितसंगमम् । ६. संगतः अ०, प० । ७. स्वामावाविह ल० अ० । ८ विद्धि । ९. भोगभूमिषु । १०. नालो - म०, ल० । ११. भवावः । १२. अभ्यन्तःकरण । 'करणं साधकतमं क्षेत्रगात्रेन्द्रियेष्वनि'इत्यभिधानात् । १३. विशुद्धदुक ब० अ० १०, ६०, स०, म०, ल० ॥