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नवमं पर्व,
१९७ सर्वेऽपि समसंमोगाः सर्वे समसुखोदयाः । सर्वे सर्वर्तुजान् मोगान् यत्र 'विन्दन्त्यनामयाः ॥१०॥ सर्वेऽपि सुन्दराकाराः सर्वे वज्रास्थिबन्धनाः । सर्वे चिरायुषः कान्स्या गोर्वाणा इय बझुवः ॥८॥ यत्र कल्पतरुच्छायामुपेत्य ललितस्मितौ । दम्पती गीतवादित्रै रमेते सततोत्सवैः ॥४२॥ कलाकुशलता कल्य देहस्वं कलकण्ठता । मात्सर्यादिबैकल्यमपि यत्र निसर्गजम् ॥८३॥ स्वभावसुन्दराकाराः स्वमावललितेहिताः । स्त्रमावमधुरालापा मोदन्ते यत्र देहिनः ॥४४॥ दानाद् दानानुमोदा वा यत्र पानसमाश्रितात् । प्राणिनः सुखमेधन्ते यावज्जीवमनामयाः ॥८५॥ कुदृष्टयो व्रतैहींनाः केवलं मोगकालिक्षणः । दवा दानान्यपात्रेषु तिर्यवस्वं यत्र यान्त्यमी ॥८६॥ कुशीलाः कुत्सिताचाराः कुवेषा दुरुपोषिताः । मायाचाराश्च जायन्ते मृगा यत्र व्रतच्युताः ॥८७॥ "मिथुनं मिथुनं तेषां मृगाणामपि जायते । न मियोऽस्ति विरोधों वा बैरं "बैरस्यमेव वा ॥८॥ इत्यत्यन्तसुखे तस्मिन् क्षेत्रे पात्रप्रदानतः । श्रीमती वज्रजश्च दम्पतित्वमुपेयतुः ॥४९॥ प्रागुताश्च मृगा जन्म भेजुस्तत्रैव भद्रकाः । पात्रदानानुमोदेन दिन्यं मानुष्यमाश्रिताः ॥१०॥ तथा मतिवरायाश्च तद वियोगाद् गताः शुचम् । इधर्मान्तिके दीक्षां जैनीमाशिश्रियन् पराम् ॥९१।।
ते सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राचारसंपदम् । समाराध्य यथाकालं स्वर्गलोकमयासिषुः ॥१२॥ जहाँ सब जीव समान रूपसे भोगोंका अनुभव करते हैं, सबके एक समान सुखका उदय होता है, सभी नीरोग रहकर छहों ऋतुओंके भोगोपभोग प्राप्त करते हैं ।।८।। जहाँ उत्पन्न हुए सभी जीव सुन्दर आकारके धारक हैं, सभी वनवृषभनाराचसंहननसे सहित हैं, सभी दीर्घ आयुके धारक हैं और सभी कान्तिसे देवोंके समान हैं ।।८।। जहाँ स्त्री-पुरुष कल्पवृक्षको छायामें जाकर लीलापूर्वक मन्द-मन्द हँसते हुए, गाना-बजाना आदि उत्सवोंसे सदा क्रीड़ा करते रहते हैं ।।८२।। जहाँ कलाओंमें कुशल होना, स्वर्गके समान सुन्दर शरीर प्राप्त होना, मधुर कण्ठ होना और मात्सर्य, ईर्ष्या आदि दोषोंका अभाव होना आदि बातें स्वभावसे ही होती हैं ।।८३॥ जहाँ के जीव स्वभावसे ही सुन्दर आकारवाले, स्वभावसे ही मनोहर चेष्टाओंवाले और स्वभावसे ही मधुर वचन बोलनेवाले होते हैं। इस प्रकार वे सदा प्रसन्न रहते हैं ।।४।। उत्तम पात्रके लिए दान देने अथवा उनके लिए दिये हुए दानकी अनुमोदना करनेसे जीव जिस भोगभूमिमें उत्पन्न होते हैं और जीवनपर्यन्त नीरोग रहकर सुखसे बढ़ते रहते हैं ।।८।। जो जीव मिथ्यादृष्टि हैं, व्रतोंसे होन हैं और केवल भोगोंके अभिलाषी हैं वे अपात्रोंमें दान देकर वहाँ तिर्यश्च पर्यायको प्राप्त होते हैं ॥८६॥ जो जीव कुशील हैं-खोटे स्वभावके धारक हैं, मिथ्या आचारके पालक हैं, कुवेषी हैं, मिथ्या उपवास करनेवाले हैं, मायाचारी हैं और व्रतभ्रष्ट हैं वे जिस भोगभूमिमें हरिण आदि पशु होते हैं ॥८॥ और जहाँ पशुओंके युगल भी आनन्दसे क्रीड़ा करते हैं। उनके परस्परमें न विरोध होता है न वैर होता है और न उनका जीवन ही नीरस होता है ॥४८॥ इस प्रकार अत्यन्त सुखोंसे भरे हुए उस उत्तरकुरुक्षेत्रमें पात्रदानके प्रभावसे वे दोनों श्रीमती और वनजंघ दम्पती अवस्थाको प्राप्त हुए-स्त्री और पुरुषरूपसे उत्पन्न हुए।८९॥ जिनका वर्णन पहले किया जा चुका है ऐसे नकुल, सिंह, वानर और शूकर भी पात्रदानकी अनुमोदनाके प्रभावसे वहींपर दिव्य मनुष्यशरीरको पाकर भद्रपरिणामी आर्य हुए ।।२०।। इधर मतिवर, आनन्द, धनमित्र और अकम्पन ये चारों ही जीव श्रीमती और वनजंघके विरहसे भारी शोकको प्राप्त हुए और अन्तमें चारोंने ही श्रीदृढधर्म नामके आचार्यके समीप उत्कृष्ट जिनदीक्षा धारण कर ली ॥९१।। और चारों ही सम्यग्दर्शन,
१. लभन्ते । 'विदुङ लाभे' । २. यत्रोत्सन्नाः । ३. रेमाते अ०, ५०, द०, स०, म० । ४. निरामय । कल्पदेहत्वं अ०,१०,द० स०। ५. मनोज्ञकण्ठत्वम् । ६. चेष्टाः । ७. मैथुनं मि-स०, द., ल०। ८. वध्यवधकादिभावः । ९. मानसिको द्वेषः । १०. रसक्षयः ।