________________
१९३
नवमं पर्व पात्रदानात्तेपुण्येन बद्धोदक्के रुजायुषो । क्षणात् कुरून् समासाथ तत्र तो जन्म भेजतुः ॥३३॥ जम्बूद्वीपमहामेरोरुत्तर दिशमाश्रिताः । सन्स्युदक्कुरवो नाम स्वर्गश्रीपरिहासिनः ॥३४॥ मद्यातोचविभूषानगदीपज्योतिहारकाः । भोजनामत्र वसाका इत्यन्वर्यसमावयाः ॥३५॥ यत्र कल्पनुमा रम्या दशधा परिकीर्तिताः । नानारबमयाः स्फीतप्रभोचोतितदिण्मुखाः ॥३६॥ मचाना मधुमैरेयसीध्वरिष्टासवादिकान् । रसभेदस्तितामोदान् वितरस्यमृतोपमान् ॥३७॥ कामोद्दीपनसाधात् मद्यमित्युपर्यते । तारवो रसभेदोऽयं यः सेग्यो मोगभूमिजैः ॥३८॥ मदस्म करणं मबं पानशोगदारतम् । तद्वर्जनीयमाणामन्तःकरणमोहदम् ॥३९॥ पटहान् मर्दलास्तालं मल्लरीशकाहरूम् । फलन्ति पणवायांत्र वावभेदस्तिदधिपाः ॥१०॥ तुलाकोटिक केयूररुचकामदवेष्टकान् । हारान् मकुटभेदब"सुवते भूषणामकाः ॥४॥ नमो नानाविधाः कर्गपूरभेदांश्च नैको । सर्वतुकुसुमाकीर्णाः सुमनोका दधस्यकम् ॥४२॥ मणिप्रदीपैरामान्ति दीपाजाल्या महामाः । ज्योतिराः सदा"पोतमातन्वन्ति स्फुरद्वचः ॥४३॥ गृहामाः सौधमुतुझं मगपंच सभागृहम् । चित्रननशाला संनिधापयितु ममाः ॥४॥
उन दोनोंने पात्रदानसे प्राप्त हुए पुण्यके कारण उत्तरकुरु भोगभूमिको आयुका बन्ध किया था: , इसलिए क्षण भरमें वहीं जाकर जन्म-धारण कर लिया ॥३३॥
जम्बूद्वीपसम्बन्धी मेरु पर्वतसे उत्तरको ओर उत्तरकुरु नामको भोगभूमि है जो कि अपनो शोभासे सदा स्वर्गकी शोभाको.हँसती रहती है|३४|| जहाँ मांग, वादित्रांग, भूषणांग, मालांग, दीपांग, ज्योतिरंग, गृहांग, भोजनांग, भाजनांग और वस्त्राग ये सार्थक नामको धारण करनेवाले दश प्रकारके कल्पवृक्ष हैं। ये कल्पवृक्ष अनेक रत्नोंके बने हुए हैं और अपनी विस्तृत प्रभासे दशों दिशाओंको प्रकाशित करते रहते हैं ॥३५-३६॥ इनमें मद्यांगजातिकें वृक्ष फैलती हुई सुगन्धिसे युक्त तथा अमृतके समान मीठे मधु-मैरेय, सीधु, अरिष्ट और आसव आदि अनेक प्रकारके रस देते है ॥३७॥ कामोद्दीपनकी समानता होनेसे शीघ्र ही इन मधु आदिको उपचारसे मद्य कहते हैं । वास्तव में ये वृक्षोंके एक प्रकारके रस हैं जिन्हें भोगभूमिमें उत्पन्न होनेवाले आर्य पुरुष सेवन करते हैं ॥३८॥ मद्यपायी लोग जिस मद्यका पान करते हैं वह नशा करनेवाला है और अन्त:करणको मोहित करनेवाला है इसलिए आर्यपुरुषोंके लिए सर्वथा त्याज्य है ॥३९॥ वादित्रांग जातिके वृक्षमें दुन्दुभि, मृदंग, मल्लरी, शंख, भेरी, चंग आदि अनेक प्रकारके बाजे फलते हैं ॥४०॥ भूषणांग जातिके वृक्ष नूपुर, बाजूबन्द, रुचिक, अंगद(अनन्त), करधनी, हार और मुकुट आदि अनेक प्रकारके आभूषण उत्पन्न करते है।।४।। मालांग जातिके वृक्ष सब ऋतुओंके फूलोंसे व्याप्त अनेक प्रकारको मालाएँ और कर्णफूल आदि अनेक प्रकारके कर्णाभरण अधिक रूपसे धारण करते हैं ॥४२॥ दीपांग नामके कल्पवृक्ष मणिमय दीपकोंसे शोभायमान रहते हैं और प्रकाशमान कान्तिके धारक ज्योतिरंग जातिके वृक्ष सदा प्रकाश फैलाते रहते हैं ।।४।। गृहांग जातिके कल्पवृक्ष, ऊँचे-ऊँचे राजभवन, मण्डप, सभागृह, चित्रशाला और नृत्यशाला आदि अनेक प्रकारके भवन तैयार करनेके लिए समर्थ
. १. स्वीकृत । २. उत्तरकुरु । ३. भाजन । ४. बहल । ५. तहसम्बन्धी। ६. मद्यपायिभिः । ७.-मन्तः करणमोहनम् द०, स०, प० ।-मन्तस्करणमोहदम् प० । ८-तालझल्लरी-प० । पटहान्मर्दलं तालमल्लरी अका ११.जावण्टा । १०. नपुरम् । रुचकं कुण्डलं ग्रीवाभरणं वा। 'रुचकं मङ्गलद्रव्ये ग्रीवाभरणदन्तयोः' इत्यभि'पानात् । ११. वेष्टकं रशना । १२.-मुकुट-अ०, ., स० । १३. अनेकधा । १४. सदा घोति वितन्वन्ति ., स.। सदोद्योतमातन्वन्ति ५०,८०, म०।१५. कर्तुम् ।
२५