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नवमं पर्व शरीषकुसुमैः कान्तामलकुर्वन् वतंसितैः । रूपिणोमिव नैदाधीं श्रियं तो बदमस्त सः ॥१२॥ धनागम धनोपान्तस्फुरत्तदिति सावसात् । कान्तयाश्लेषि विश्लेषमीतया घनमेव सः ॥१३॥ इन्द्रगोपचिता भूमिरामन्द्रस्तनिता घनाः । ऐन्द्रचापं च पान्यानां चक्रुरुत्कण्ठितं मनः ॥१४॥ नमः स्थगितमस्माभिः सुरगोपैसता मही । क्व याथेति न्यषेधन् नु पथिकान् गर्जितैर्धनाः ॥१५॥ विकासिकुटजच्छन्ना भूधराणामुपत्यकाः । मनोऽस्य निन्युरौत्सुक्यं स्वनैरुन्मदकेकिनाम् ॥१६॥ कदम्बानिलसंवाससुरमीकृतसानवः । गिरयोऽस्य मनो जहुः काले नृस्यच्छिखावले ॥३०॥ भनेहसि" लसद्विदुयोतितविहायसि । स रेमे रम्यहाप्रम धिशय्य प्रियासखः ॥१८॥ सरितामुद्धताम्मोमिः प्रियामानप्रधाविमिः । प्रवाहैतिरस्यासीन वर्षोंः समुपागमे ॥१९॥ भोगान् पऋतुजानित्यं भुजानोऽसौ सहाजनः । साक्षास्कृत्येव मूढानां तपःफलमदर्शयन् ॥२०॥ अथ कालागुरूहामधूपधूमाधिवासिते । मणिप्रदीपकोद्योतदूरीकृततमस्तरे ॥२३॥
"प्रतिपादिकविन्यस्तरस्लमचोपशोमिनि । दधत्यालम्बिमिर्मुक्का जालकैह "सितश्रियम् ॥२२॥ ऐसी श्रीमतीको गलेमें लगाता हुआ वनजंघ गरमीसे पैदाहोनेवाले किसी भी परिश्रमको नहीं जानता था ॥१२॥ वह कभी शिरीषके फूलोंके आभरणोंसे श्रीमतीको सजाता था और फिर उसे साक्षात् शरीर धारण करनेवाली प्रीष्मऋतुकी शोभा समझता हुआ बहुत कुछ मानता था ॥१२॥ वर्षातमें जब मेघोंके किनारेपर बिजली चमकती थी उस समय वियोगके भयसे अत्यन्त भयभीत. हुई. श्रीमती बिजलीके डरसे वनजंघका स्वयं गाढ़ आलिंगन करने लगती थी॥१३॥ उस समय वीरबहूटी नामके लाल-लाल कीड़ोंसे व्याप्त पृथ्वी, गम्भीर गर्जना करते हुए मेघ और इन्द्रधनुष ये सब पथिकोंके मनको बहुत ही उत्कण्ठित बना रहे थे ॥१४॥ उस समय गरजते हुए बादल मानो यह कहकर हीपथिकोंको गमन करनेसे रोक रहे थे कि आकाश तो हम लोगोंने घेर लिया है और पृथ्वी वीरबहूटी कीड़ोंसे भरी हुई है अब तुम कहाँ जाओगे!॥१५॥ उस समय खिले हुए कुटज जातिके वृक्षोंसे, व्याप्त पर्वतके समीपकी भूमि उन्मत्त हुए मयूरोंके शब्दोंसे राजा वनजंघका मन उत्कण्ठित कर रही थी ।।१६।। जिस समय मयूर नृत्य कर रहे थे ऐसे उस वर्षाके समयमें कदम्बपुष्पोंकी वायुके सम्पर्कसे सुगन्धित शिखरोंवाले पर्वत राजा वनजंघका मन हरण कर रहे थे ॥१७॥ जिस समय चमकती हुई बिजलीसे आकाश प्रकाशमान रहता है ऐसे उस वर्षाकालमें राजा वनजंघ अपने सुन्दर महलके अप्रभागमें प्रिया श्रीमतोके साथ शयन करता हआ रमण करता था ॥१८॥ वर्षाऋतु आनेपर खियोंका मान दूर करनेवाले और उछलते हुए जलसे शोभायमान नदियोंके पूरसे उसे बहुत ही सन्तोष होता था ॥१९॥ इस प्रकार वह राजा वनजंघ अपनी प्रिया श्रीमतीके साथ-साथ छहों तुओंके भोगोंका अनुभव करता हुआ मानो मूर्ख लोगोंको पूर्वभवमें किये हुए अपने तपका साक्षात् फल ही दिखला रहा,था ॥२०॥
अथानन्तर एक दिन वह वजजंघ अपने शयनागारमें कोमल, मनोहर और गंगा नदीके बालूदार तटके समान सुशोभित रेशमी चहरसे उज्ज्वल शय्यापर शयन कर रहा था। जिस शयनागारमें वह शयन करता था वह कृष्ण अगुरुको बनी हुई उत्कृष्ट धूपके धूमसे अत्यन्त
१. निविडम् । २. आच्छादितम् । ३. विस्तृता। ४. कुत्र गच्छथ । ५. निषेधं चक्रिरे । ६.इव। ७. गजिता घनाः म०, ल.। ८. आसन्नभूमिः। ९. सहवास। १०.प्रावृषि इत्यर्थः । ११. का। १२. सौषाने 'शीस्थासोरघेराधारः' इति सूत्रात् सप्तम्यर्थे द्वितीया। १३. अहंकारप्रक्षालकः। १४. वर्षतों ल.। १५. निविडान्धकारे । १६. प्रतिपादकेष स्थापिता । १७. हसितं हसनम् ।