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अष्टमं पर्व
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किमयममरनाथः किंस्विदीशो धनानां
किमुत फणिगणेशः किं वपुमाननमः । इति पुरनरनारीजल्पनैः कथ्यमानो
गृहमविशदुदारश्रीः परादर्थ महर्दिः ॥२५॥
शार्दूलविक्रीडितम् तत्रासौ सुखमावसत् स्वरुचितान् भोगान् स्वपुण्योर्जितान्
भुजानः परतुप्रमोदजनने हम्य मनोहारिणि । संभोगैरुचितैः शचीमिव हरिः संभावयन् प्रेयसी
जैन धर्ममनुस्मरन् स्मरनिमः कीर्ति च तन्वन् दिशि ॥२५७॥ इत्या भगवजिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे
श्रीमतीवजजधपात्रदानानुवर्णनं नामाष्टम पर्वे ॥८॥
क्या यह इन्द्र है ? अथवा कुबेर है ? अथवा धरणेन्द्र है ? अथवा शरीरधारी कामदेव है ? इस प्रकार नगरकी नर-नारियोंकी बातचीतके द्वारा जिनकी प्रशंसा हो रही है ऐसे अत्यन्त शोभायमान और उत्कृष्ट विभूतिके धारक वनजंघने अपने श्रेष्ठ भवनमें प्रवेश किया ॥२५६।। छहों ऋतुओंमें हर्ष उत्पन्न करनेवाले उस मनोहर राजमहलमें कामदेवके समान सुन्दर वनजंघ अपने पुण्यके उदयसे प्राप्त हुए मनवांछित भोगोंको भोगता हुआ सुखसे निवास करता था। तथा जिस प्रकार संभोगादि उचित उपायोंके द्वारा इन्द्र इन्द्राणीको प्रसन्न रखता है उसी प्रकार वह वजजंघ संभोग आदि उपायोंसे श्रीमतीको प्रसन्न रखता था। वह सदा जैन धर्मका स्मरण रखता था और दिशाओंमें अपनी कीर्ति फैलाता रहता था ।२५७।।
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवजिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण __महापुराण संग्रहमें श्रीमती भोर वज्रजाके पात्रदानका वर्णन
करनेवाला आठवाँ पर्व समाप्त हुभा ॥८॥
- १. श्लाध्यमानः । २.-सौ पुरमाव-अ०। ३. आत्माभोष्टान् । ४. प्रियतमाम् । ५. दिशः द०, स..