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आदिपुराणम् खतोऽमिवन्य योगीन्द्रौ नरेन्द्रः प्रिययान्वितः । स्वावासं प्रत्यगात् प्रीतैः समं मतिवरादिमिः ॥२४॥ मुनी च वातरशनौ वायुमन्वीयतुस्तदा । मुनिवृत्तेरसंगरवं ख्यापयन्तौ नभोगती ॥२४९॥ नृपोऽपि तद्गुणध्यानसमुस्कण्ठितमानसः । तत्रैव तदहःशेषम तिवाय' ससाधनः ॥२५०॥ ततः प्रयाणकैः कैश्चित् संप्रापत् पुण्डरीकिणीम् । तत्रापश्यश्च शोकाचा देवी लक्ष्मीमती सतीम् ॥२५॥ अनुन्धरी च सोस्कण्ठां समाश्चास्य शनैरसौ। पुण्डरीकस्य तद्राज्यमकरोनिरुपप्लवम् ॥२५२॥ प्रकृतीरपि सामाथै रुपायैः सोऽन्वरअयत् । सामन्तानपि संमान्य यथापूर्वमतिष्ठपत् ॥२५३॥ समन्त्रिकं ततो राज्ये बालं बालार्कसपमम् । निवेश्य पुनरावृत्तः प्रापदुत्पलखेटकम् ॥२५४॥
___ मालिनीच्छन्दः अथ परमविभूत्या वज्रजाः क्षितीशः
पुरममरपुरामं स्वं' विशन् कान्तयामा। शतमख इव शच्या संभृतश्रीः स रेजे
पुरवरवनितानां लोचनैः पीयमानः ॥२५५॥
वनजंघका शरीर हर्षसे रोमाञ्चित हो उठा जिससे ऐसा मालूम होता था मानो प्रेमके अंकुरोंसे व्याप्त ही हो गया हो।२४७॥ तदनन्तर राजा उन दोनों मुनिराजोंको नमस्कार कर रानी श्रीमती और अतिशय प्रसन्न हुए मतिवर आदिके साथ अपने डेरेपर लौट आया ॥२४॥ तत्पश्चात् वायुरूपी वनको धारण करनेवाले (दिगम्बर) वे दोनों मुनिराज मुनियोंकी वृत्ति परिग्रहरहित होती है। इस बातको प्रकट करते हुए वायुके साथ-साथ ही आकाशमार्गसे विहार कर गये ।।२४९।। राजा वनजंघने उन मुनियोंके गुणोंका ध्यान करते हुए उत्कण्ठित चित्त होकर उस दिनका शेष भाग अपनी सेनाके साथ उसी शष्प नामक सरोवरके किनारे व्यतीत किया ॥२५०।। तदनन्तर वहाँ से कितने ही पड़ाव चलकर वे पुण्डरीकिणी नगरीमें जा पहुँचे। वहाँ जाकर राजा वनजंघने शोकसे पीड़ित हुई सती लक्ष्मीमती देवीको देखा
और भाईके मिलनेकी उत्कण्ठासे सहित अपनी छोटी बहन अनुन्धरीको भी देखा। दोनोंको धीरे-धीरे आश्वासन देकर समझाया तथा पुण्डरीकके राज्यको निष्कण्टक कर दिया IR५१-२५२।। उसने साम, दाम, दण्ड, भेद आदि उपायोंसे समस्त प्रजाको अनुरक्त किया
और सरदारों तथा आश्रित राजाओंका भी सम्मान कर उन्हें पहलेकी भाँति (चक्रवर्तीके समयके समान ) अपने-अपने कार्योंमें नियुक्त कर दिया ॥२५३।। तत्पश्चात् प्रातःकालीन सूर्यके समान देदीप्यमान पुण्डरीक बालकको राज्य-सिंहासनपर बैठाकर और राज्यकी सब व्यवस्था सुयोग्य मन्त्रियोंके हाथ सौंपकर राजा वज्रजंघ लौटकर अपने उत्पलखेटक नगरमें आ पहुँचे ।।२५४।। उत्कृष्ट शोभासे सुशोभित महाराज वनजंघने प्रिया श्रीमतीके साथ बड़े ठाटबाटसे स्वर्गपुरीके समान सुन्दर अपने उत्पलखेटक नगर में प्रवेश किया। प्रवेश करते समय नगरकी मनोहर स्त्रियाँ अपने नेत्रों-द्वारा उनके सौन्दर्य-रसका पान कर रही थीं। नगर में प्रवेश करता हुआ वनजंघ ‘ऐसा शोभायमान हो रहा था मानो स्वर्गमें प्रवेश करता हुआ इन्द्र ही हो ॥२५५॥
१. प्रोत्यं समं-अ०। २. वातवसनी द०, ल०। वान्तवसनौ प० । वान्तरसनौ अ०। ३. कथयन्ती। ४. दिवसावशेषम् । ५. अतीत्य । ६. निरुपद्रवम् । ७. प्रजाः । ८. सामभेददानदण्ड: । ९. सत्कृत्य । १०. सदृशम् । ११. आत्मीयम् । १२. विशत्का-अ०, ५०, स०, म०। १३. सम्यग्धृतश्रोः ।