________________
अष्टमं पर्व
१८७ दत्त्वापू निगूढं स्वं मूढः प्रावेशयद् गृहम् । इष्टकास्तत्र कासांचित् भेदेऽपश्यच काञ्चनम् ॥२३॥ तल्लोभादिष्टका भूयोऽप्यानाययितुमुचतः । पुरुषैर्वेष्टिकैस्तेभ्यो दत्वापूपादिभोजनम् ॥२३७॥ स्वसुताग्राममन्येयुः स गच्छन् पुत्रमात्मनः । न्ययुक्त पुत्रकाहारं दरवाऽनाय्यास्त्वयेष्टकाः ॥२३॥ इत्युक्त्वास्मिन् गते पुत्रः तत्तथा नाकरोदतः । स निवृत्स्य सुतं पृष्ठों रुष्टोऽसौ दुष्टमानसः ॥२३९॥ शिरः पुत्रस्य निर्मिध लकुटोपलताडनैः । चरणौ स्वौ च निवेदान् वमन किल मूढधीः ॥२४॥ राज्ञा च घातितो मृत्वा नकुलत्वमुपागमत् । अप्रत्याख्यानलोभेन नीतः सोऽयं दशामिमाम् ॥२४१॥ युष्मदानं समीक्ष्यते प्रमोदं परमागताः । प्राप्ता जातिस्मरत्वं च निर्वदमधिकं श्रिताः ॥२४२॥ भवदानानुमोदेन बद्धायुष्काः कुरुष्वमी । ततोऽमी मीतिमुत्सृज्य स्थिता धर्मश्रवार्थिनः ॥२४३॥ इतोऽष्टमे मवे भाविन्यपुनर्भवतां मवान् । भवितामी च तत्रैव भवे 'सेत्स्यन्स्यसंशयम् ॥२४॥ तावच्चाभ्युदयं सौख्यं दिव्यमानुषगोचरम् । स्वयैव सममेतेऽनुमोक्तारः पुण्यमागिनः ॥२४५॥ श्रीमती च भवत्तीय"दानतीर्थप्रवर्तकः । श्रेयान् भूत्वा परं श्रेयः श्रमिष्यति न संशयः ॥२४६॥
इति चारणयोगीन्द्रवचः श्रुत्वा नराधिपः । दधे रोमानितं गात्रं"ततं प्रेमाङ्कुरैरिव ॥२७॥ मजदूरोंको कुछ पुआ वगैरह देकर उनसे छिपकर कुछ ईंटें अपने घरमें डलवा लेता था। उन इटोंके फोड़नेपर उनमें से कुछमें सुवर्ण निकला । यह देखकर इसका लोभ और भी बढ़ गया। उस सुवर्णके लोभसे उसने बार-बार मजदूरोंको पुआ आदि देकर उनसे बहुत-सी इंटें अपने घर डलवाना प्रारम्भ किया ॥२३५-२३७। एक दिन उसे अपनी पुत्रीके गाँव जाना पड़ा। जाते समय वह पुत्रसे कह गया कि हे पुत्र, तुम भी मजदूरोंको कुछ भोजन देकर उनसे अपने घर इंटें डलवा लेना ॥२३८॥ यह कहकर वह तो चला गया परन्तु पुत्रने उसके कहे अनुसार घरपर इंटें नहीं डलवायीं । जब वह दुष्ट लौटकर घर आया और पुत्रसे पूछनेपर जब उसे सब हाल मालूम हुआ तब वह पुत्रसे भारी कुपित हुआ ॥२३९।। उस मूर्खने लकड़ी तथा पत्थरोंको मारसे पुत्रका शिर फोड़ डाला और उस दुःखसे दुःखी होकर अपने पैर भी काट डाले ॥२४०।। अन्तमें वह राजाके द्वारा मारा गया और मरकर इस नकुल पर्यायको प्राप्त हुआ है । वह हलवाई अप्रत्याख्यानावरण लोभके उदयसे ही इस दशा तक पहुँचा है ।।२४१॥
हे राजन् , आपके दानको देखकर ये चारों ही परम हर्षको प्राप्त हो रहे हैं और इन चारोंको ही जाति-स्मरण हो गया है जिससे ये संसारसे बहुत ही विरक्त हो गये हैं ।२४२॥
आपके दिये हुए दानको अनुमोदना करनेसे इन सभीने उत्तम भोगभूमिकी आयुका बन्ध किया है । इसलिए ये भय छोड़कर धर्मश्रवण करनेकी इच्छासे यहाँ बैठे हुए हैं ।।२४॥ हे राजन् , इस भवसे आठवें आगामी भवमें तुम वृषभनाथ तीर्थकर होकर मोक्ष प्राप्त करोगे और उसी भवमें ये सब भी सिद्ध होंगे, इस विषयमें कुछ भी सन्देह नहीं है ॥२४४॥ और तबतक ये पुण्यशील जीव आपके साथ-साथ ही देव और मनुष्योंके उत्तम-उत्तम सुख तथा विभूतियोंका अनुभोग करते रहेंगे ॥२४५|| इस श्रीमतीका जीव भी आपके तीर्थमें दानतीर्थकी प्रवृत्ति चलानेवाला राजा श्रेयान्स होगा और उसी भवसे उत्कृष्ट कल्याण अर्थात् मोक्षको प्राप्त होगा, इसमें संशय नहीं है ।।२४६। इस प्रकार चारण ऋद्धिधारी मुनिराजके वचन सुनकर राजा
१. दत्त्वापूपान् द०, अ०, स०, प० । अपूपं भक्ष्यम् । २. दृष्ट्वा अ० । ३. निर्भेद्य अ०, स० । ४. लकुटो दण्डः । ५.अवस्थाम् । ६.श्रवः श्रवणम् । ७. पुनर्भवरहितस्वम्, सिद्धत्वमित्यर्थः । ८. प्राप्स्यति । अत्र प्राप्त्यर्थः शाकटायनापेक्षया तङन्तो वा अतङन्तो वाऽस्तु । 'भुवः प्राप्ताविणि' इति सूत्रव्याख्याने वाऽऽत्मनेपदीति भूधातुः तङन्त एव । ९. सिदि प्राप्स्यन्ति । सेत्स्यत्यसं-ल०।१०. अनुभविष्यन्ति । ११. भवत्तोर्षदानस०, अ०। १२. विस्तृतम् ।