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सप्तमं पर्व
आजानुलम्यमानेन तौ प्रालम्बेन' रेजतुः । शरज्ज्योत्स्नामयेनेव मृणालच्छविचारुणा ॥२३४॥ कटकालकेयूर मुद्रिका दिविभूषणः । बाहू व्यरुवतां कल्पतरुशाखाच्छवी तयोः ॥ २३५॥ " जघने रसनावेष्टं' 'किङ्किणीकृत निःस्वनम् । तावनङ्गद्विपस्येव जयडिण्डिममूहतुः ॥ २३६ ॥ मणिनूपुरशङ्कारैः क्रमौ शिश्रियतुः श्रियम् । श्रीमत्याः पद्मयोर्भुङ्गकलनिःक्वणशोमिनोः ॥ २३७॥ महालंकृतिमाचार इत्येव विभ्रतः स्म तौ । अभ्यर्था सुन्दराकारशोभैवालं कृतिस्तयोः ॥२३८॥ लक्ष्मीमतिः स्वयं लक्ष्मीरिव पुत्रीमभूषयत् । पुत्रं च भूषयामास वसुधेव वसुन्धरा ॥ २३९ ॥ प्रसाधनविधेरन्ते यथास्वं तौ निवेशितौ । रत्नवेदीतटे पूर्व कृतमङ्गलसरिक्रये ॥ २४० ॥ मणिप्रदीपरुचिरा मङ्गलैरुपशोभिता । वमौ वेदी तदाक्रान्ता' सामरेवाद्विराट्तटी ॥२४१|| ततो मधुरगम्भीरमानकाः कोणता डिताः । दध्वनुध्वं नदम्मोधि" गभीरध्वनयस्तदा ॥ २४२ ॥ मङ्गलोद्गानमातेनुर्वारवध्वः कलं तदा । "उत्साहान् पेठुरभितो वन्दिनः" सह" मागधाः || २४३ || वर्द्धमानलयैनृत्तमारेभे ललितं तदा । वाराङ्गनामिरुद्भ्रूभी रणन्नूपुरमेखलम् ॥ २४४ ॥
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धारण किये थे कि जिनमें लगे हुए रत्नोंकी किरणोंसे उनका मुख-कमल उत्कृष्ट शोभाको प्राप्त हो रहा था ।। २३३ ।। वे दोनों शरदूऋतुकी चाँदनी अथवा मृणाल तन्तुके समान सुशोभित सफेद, घुटनों तक लटकती हुई पुष्पमालाओंसे अतिशय शोभायमान हो रहे थे || २३४|| कड़े, बाजूबंद, केयर और अँगूठी आदि आभूषण धारण करनेसे उन दोनोंकी भुजाएँ भूषणांग जातिके कल्पवृक्षकी शाखाओंकी तरह अतिशय सुशोभित हो रही थीं ||२३५|| उन दोनोंने अपने-अपने नितम्ब भागपर करधनी पहनी थी। उसमें लगी हुई छोटी-छोटी घण्टियाँ (बोरा) मधुर शब्द कर रही थीं । उन करधनियोंसे वे ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो उन्होंने कामदेवरूपी हस्तीके विजय- सूचक बाजे ही धारण किये हों ॥ २३६ ॥ श्रीमतीके दोनों चरण मणिमय नूपुरोंकी शंकारसे ऐसे मालूम होते थे मानी भ्रमरोंके मधुर शब्दोंसे शोभायमान कमल ही हों ॥ २३७॥ विवाह के समय आभूषण धारण करना चाहिए, केवल इसी पद्धतिको पूर्ण करनेके लिए उन्होंने बड़े-बड़े आभूषण धारण किये थे नहीं तो उनके सुन्दर शरीरकी शोभा ही उनका आभूषण थी ||२३८|| साक्षात् लक्ष्मीके समान लक्ष्मीमतिने स्वयं अपनी पुत्री श्रीमतीको अलंकृत किया था और साक्षात् वसुन्धरा ( पृथिवी) के समान वसुन्धराने अपने पुत्र व जंघको आभूषण पहनाये थे || २३९ || इस प्रकार अलंकार धारण करनेके बाद वे दोनों जिसकी मंगलक्रिया पहले ही की जा चुकी है ऐसी रत्न - वेदीपर यथायोग्य रीतिसे बैठाये गये || २४०॥ मणिमय दीपकों के प्रकाशसे जगमगाती हुई और मङ्गल-द्रव्योंसे सुशोभित वह वेदी उन दोनोंके बैठ जानेसे ऐसी शोभायमान होने लगी थी मानो देव देवियोंसे सहित मेरु पर्वतका तट ही हो ॥ २४२॥ उस समय समुद्रके समान गम्भीर शब्द करते हुए, डंडोंसे बजाये गये नगाड़े बड़ा ही मधुर शब्द कर रहे थे ||२४२|| वाराङ्गनाएँ मधुर मंगल गीत गा रही थीं और बन्दीजन मागध जनोंके - साथ मिलकर चारों ओर उत्साहवर्धक मङ्गल पाठ पढ़ रहे थे ।। २४३ ॥ जिनकी भौंहें कुछकुछ ऊपरको उठी हुई हैं ऐसी वाराङ्गनाएँ लय-तान आदिसे सुशोभित तथा रुन-झुन शब्द
१. हारविशेषेण । 'प्रालम्बमृजुलम्बि स्यात्' इत्यमरः । २. भुजाभरणम् । ३. भुजशिखराभरणम् । ४. जघनं अ०, प०, स०, द०, ल० । ५. काञ्चीदामवलयम् । ६. क्षुद्रघण्टिका । ७. इत्येवं अ०, प०, स०, ६० । ८. आचाराभावे । ९ तद्वधूवराक्रान्ता । १०. कोणः वाद्यताडनोपकरणम् । 'कोण: वोणादिवादनम्' इत्यभिधानात् । ११. गम्भीर अ०, प०, स०, ६०, ल० | १२. मङ्गलाष्टकान् । १३. स्तुतिपाठकाः । १४. वंशबीर्यादिस्तुत्युपजीविनः । सहमागधी अ०, प०, स०, ६०, ल० ।