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अष्टमं पर्व नदीपुलिनदेशेषु कदाचिद विजहार सः । स्वयंगसत्संफुल्ललताकुसुमशोमिषु ॥२१॥ कदाचिद् दीर्घिकाम्भस्सु जलक्रीडा समातनोत् । मकरन्दरजःपुअपिअरेषु स सरिप्रयः ॥२२॥ चामीकरमयैर्यन्त्रैर्जलकेलिविधावसौ । प्रियामुखाजमम्मोभिरसिञ्चत् कूणितेक्षणम् ॥२३॥ साप्यस्य मुखमासेक्तुं कृतवाञ्छापि नाशकत् । स्तनांशुक्के गलस्याविर्मवद्वी डापरामुखी ॥२४॥ जलकलिविधौ तस्या लग्नं स्तनतटेंऽशुकम् । जलच्छायां दधे श्लक्ष्णं स्तनशोभामकर्शयत् ॥२५॥ स्तनकुटमल संशोभा मृदुबाहुमृणालिका । सा दधे नलिनीशोमा मुखाम्बुजविराजिनी ॥२६॥ कर्णोत्पलं स्वमित्यस्या विलोलेरादधे जलः । तन्मुखाम्बुरुहच्छायां स्वाब्जेंतुमिवाक्षमैः ॥२७॥ धारागृहे स निपतदाराबधनागमे । प्रियया विद्युतेवोः चिक्रीड सुखनिर्वृतः ॥२८॥ कदाचित्सोधपृष्ठेषु तारकाप्रतिविम्बितैः । कृतार्चनेवसी रेमे ज्योत्स्नां रात्रिषु निर्विशन् ॥२९॥ इति तत्र चिरं मोगैरुपमोगैश्च हारिमिः । वधूवरमरंस्सैतत् स्वर्गमोगातिशायिमिः ॥३०॥ तयोस्तथाविधर्मोगैर्जितेन्द्रमहिमोत्सवैः । पात्रदानविनोदेब तत्रकाकोऽगमद् बहुः ॥३१॥
"नित्यप्रसाद लाभेन तयोनित्यमहोत्सवैः । पुत्रोत्पत्यादिसगैश्च स कालोऽविदितोऽगमत् ॥३२॥ (निकुंजों) से शोभायमान तथा क्रोडा-पर्वतोंसे सहित बाहरके उद्यानों में उत्सुक होकर क्रीडा करता था ॥ १९-२०।। कभी फूली हुई लताओंसे झरे हुए पुष्पोंसे शोभायमान नदीतटके प्रदेशोंमें विहार करता था ॥२१।। और कभी कमलोंकी परागरजके समूहसे पोले हुए बावड़ीके जलमें प्रियाके साथ जल-क्रोड़ा करता था ॥२२॥ वह वनजंघ जल-क्रीड़ाके समय सुवर्णमय पिच. कारियोंसे अपनी प्रिया श्रीमतीके तीखे कटाक्षोंवाले मुख-कमलका सिंचन करताथा॥२३॥पर श्रीमती जब प्रियपर जल डालने के लिए पिचकारी उठाती थी तब उसके स्तनोंका आँचल खिसक जाता था और इससे वह लज्जासे विमुख हो जाती थी ।।२४ ॥ जल-क्रीड़ा करते समय श्रीमतीके स्तनतटपर जो महीन बस पानीसे भीगकर चिपक गया था वह जलकी छायाके समान मालूम होता था। तथा उसने उसके स्तनोंकी शोभा कम कर दी थी ॥२५ ।। श्रीमतीके स्तन कुड्मल (बौंड़ी) के समान, कोमल भुजाएँ मृणालके समान और मुख कमलके समान शोभायमान था इसलिए वह जलके भीतर कमलिनीकी शोभा धारण कर रही थी ॥२६।। हमारे ये कमल श्रीमतीके मुखकमलको कान्तिको जीतनेके लिए समर्थ नहीं हैं यह विचार कर ही मानो चंचल जलने श्रीमतीके कर्णोत्पलको वापस बुला लिया था ॥२७॥ ऊपरसे पड़ती हुई जलधारासे जिसमें सदा वर्षाऋतु बनी रहती है ऐसे धारागृहमें (फव्वाराके घरमें) वह वनजंघ बिजलीके समान अपनी प्रिया श्रीमतीके साथ सुखपूर्वक क्रीड़ा करता था।R८॥ और कभी ताराओंके प्रतिबिम्बके बहाने जिनपर उपहारके फूल बिखेरे गये हैं ऐसे राजमहलोंकी रत्नमयी छतोंपर रातके समय चाँदनीका उपभोग करता हुआ क्रीड़ा करता था॥२९॥ इस प्रकार दोनों वधू-वर उस पुण्डरीकिणी नगरीमें स्वर्गलोकके भोगोंसे भी बढ़कर मनोहर भोगोपभोगोंके द्वारा चिरकाल तक क्रीड़ा करते रहे ॥३०॥ ऊपर कहे हुए भोगोंके द्वारा, जिनेन्द्रदेवकी पूजा आदि उत्सवोंके द्वारा और पान दान आदि माङ्गलिक कार्योंके द्वारा उन दोनोंका वहाँ बहुत समय व्यतीत हो गया था ॥ ३१॥ वहाँ अनेक लोग आकर वनजंघके लिए उत्तम-उत्तम वस्तुएँ भेंट करते थे, पूजा आदिके उत्सव होते रहते थे तथा पुत्र-जन्म आदिके समय अनेक उत्सव मनाये जाते थे जिससे उन दोनोंका दीर्घ समय अनायास ही व्यतीत हो गया था ॥३२॥
१. कूणितं सङ्कोचितम् । कोणितेक्षणम् म०, ल• । २. लज्जा । ३. जलच्छायं ५०, १०, स० । बकछाया ल०। ४. श्लक्ष्णां प०। ५. कृशमकुर्वत्। ६.-कुदमल-1०,१०, स., म०,६०,ल.। ७. सुबतृप्तः । ८. प्रतिबिम्बैः । ९. अनुभवन् । 'निर्वेशो भतिभोगयोः'। १०. पूजोत्सवः । ११. तस्य प्रसाद, क.। १२. प्रसन्नता।
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