________________
१८०
आदिपुराणम् 'वनषण्डवृतप्रान्तं यदर्कस्यांशवो भृशम् । न तेपुः संवृत' को वा तपेदान्तिरात्मकम् ॥१५२॥ विहङ्गमरुतैनूनं तत्सरो नृपसाधनम् । माजुहाव निवेष्टन्यमिहेत्युद्वीचिबाहुकम् ॥५३॥ ततस्तस्मिन् सरस्यस्य न्यविक्षत बलं प्रभोः । तल्गुल्मलताच्छन्नपर्यन्ते मृदुमारुते ॥१५४॥ दुर्बलाः स्वं जहुः स्थानं बलवनिरमिताः । आदेशेरिव संप्राप्तः स्थानिनो हन्तिपूर्वकाः ॥१५५॥ विजहुनिंजनीडानि विहगास्तत्रसुदंगाः । मृगेन्द्रा बलसंक्षोमात् शनैः समुदमीलयन् ॥१५६॥ शाखाविषकभूषादि-रुचिरा वनपादपाः । कल्पद्रुमश्रियं भेडराश्रितैमिथुनैर्मियः ॥१५७॥ कुसुमापचये तेषां पादपा विटपैनताः । मानुकूलमिवातेनुः संमतातिथ्यसखियाः ॥१५॥ कृतावगाहनाः स्नातुं स्तनदनं सरोजलम् । रूपसौन्दर्यलोभेन" तदगारी'दिवानाः ॥१५९॥ ''किणीभूतखस्कन्धान विशतः काचवाहकान् । स्वाम्भोऽतिव्ययमोस्येव चकम्पे वीक्ष्य तत्सरः॥१६॥
विष्वग दरशिरे"दूप्यकुटीभेदा निवेशिताः । क्लुप्सा वयज्जिनस्यास्य" वनश्रीमिरिवालयाः ॥१६१॥ उस सरोवरके किनारेके प्रदेश हरे-हरे वनखण्डोंसे घिरे हुए थे इसलिए सूर्यको किरणें उसे सन्तप्त नहीं कर सकती थीं सो ठीक ही है जो संवृत है-वन आदिसे घिरा हुआ है (पक्षमें गुप्ति समिति आदिसे कर्मोका संवर करनेवाला है) और जिसका अन्तःकरण-मध्यभाग ( पक्षमें हृदय ) आई है-जलसे सहित होनेके कारण गीला है (पक्षमें दयासे भीगा है) उसे कौन सन्तप्त कर सकता है ? ॥१५२।। उस सरोवरमें लहरें उठ रही थीं और किनारेपर हंस, चकवा आदि पक्षी मधुर शन्न कर रहे थे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो यह सरोवर लहररूपी हाथ उठाकर पक्षियोंके द्वारा मधुर शब्द करता हुआ 'यहाँ ठहरिए' इस तरह वनजंघकी सेनाको बुला ही रहा हो ॥१५३॥ तदनन्तर, जिसके किनारे छोटे-बड़े वृक्ष और लताओंसे घिरे हुए हैं तथा जहाँ मन्द-मन्द वायु बहती रहती है ऐसे उस सरोवरके तटपर वनजंघकी सेना ठहर गयी ॥१५४॥ जिस प्रकार व्याकरणमें 'वध' 'घस्लु' आदि आदेश होनेपर हन आदि स्थानी अपना स्थान छोड़ देते हैं उसी प्रकार उस तालाबके किनारे बलवान् प्राणियों द्वारा ताड़ित हुए दुर्बल प्राणियोंने अपने स्थान छोड़ दिये थे । भावार्थ-सैनिकोंसे डरकर हरिण आदि निर्बल प्राणी अन्यत्र चले गये थे और उनके स्थानपर सैनिक ठहर गये थे ॥१५५।। उस सेनाके क्षोभसे पक्षियोंने अपने घोंसले छोड़ दिये थे, मृग भयभीत हो गये थे
और सिंहोंने धीरे-धीरे आँखें खोली थीं ॥१५६।। सेनाके जो स्त्री-पुरुष वनवृक्षोंके नीचे ठहरे थे उन्होंने उनकी डालियोंपर अपने आभूषण, वस्त्र आदि टाँग दिये थे इसलिए वे वृक्ष कल्पवृक्षकी शोभाको प्राप्त हो रहे थे ॥१५७।। पुष्प तोड़ते समय वे वृक्ष अपनी डालियोंसे झुक जाते थे जिससे ऐसा मालूम होता था मानो वे वृक्ष आतिथ्य-सत्कारको उत्तम समझकर उन पुष्प तोड़नेवालोंके प्रति अपनी अनुकूलता ही प्रकट कर रहे हों ॥१५८।। सेनाकी स्त्रियाँ उस सरोवरके जलमें स्तन पर्यन्त प्रवेश कर स्नान कर रही थीं, उस समय वे ऐसी शोभायमान हो रही थीं मानो सरोवरका जल अदृष्टपूर्व सौन्दर्यका लाभ समझकर उन्हें अपने-आपमें निगल ही रहा हो ॥१५९॥ भार ढोनेसे जिनके मजबूत कन्धोंमें बड़ी-बड़ी भट्टे पड़ गयी हैं, ऐसे कहार लोगोंको प्रवेश करते हुए देखकर वह तालाब 'इनके नहानेसे हमारा बहुत-सा जल व्यर्थ ही खर्च हो जायगा' मानो इस भयसे ही काँप उठा था ॥१६०॥ इस तालाबके किनारे चारों ओर लगे हुए तम्बू ऐसे मालूम होते थे मानो वनलक्ष्मीने भविष्यकालमें तीर्थकर होनेवाले वनजंघके
१. वनखण्ड अ०, द०, स०, म०, ल० । २. निभृतम् । ३. पर्यन्तमदु अ०, ल०। ४. हनिपूर्वकाः ब, प०, अ०, म, द०, ल०, ट। हन् हिसागत्योरित्यादिधातवः। ५. नयनोन्मीलनं चक्रिरे । ६. लग्नम् । ७. कुसुमावचये अ०, ५०, द० स०। ८. स्तनप्रमाणम् । ९. -लाभेन म.,ल.। १०. सरः । ११. गिलति स्म । १२. ब्रणीभूतदृढ़भुजशिखरान् । १३. कावटिकान् । १४. वस्त्रवेश्म । १५. भविष्यज्जिनस्य ।