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आदिपुराणम्
महानच्च नरेन्द्रस्य प्रमदस्तेन' नागराः । सर्वे यूयं स्वगेहेषु बद्ध्वा केतून् सतोरणान् ॥१९८॥ गृहाङ्गणानि रथ्याश्च कुरुताशु प्रसूनकैः । सोपहाराबि मोरन्ध्रमि ति दनः प्रघोषणाम् ॥ १९९॥ ततो मुनिरसौ स्वक्त्वा पुरमन्त्रागमिष्यति । विविस्माप्रासु कस्वेन विहारायोग्यमात्मनः ॥ २००॥ पुरोधवचनात् तुष्टो नृपोऽसौ प्रीतिवर्द्धनः । तत् तथैवाकरोत् प्रीतो मुनिरत्यागमत् तथा ॥२०१॥ पिहितास्तवनामासौ मासक्षपण संयुतः । प्रविष्टो नृपतेः सचं चरंश्चर्या मनुक्रमात् ॥ २०२॥ ततो नृपतिना तस्मै दत्तं दानं यथाविधि । पातिता च दिवो देवैः वसुधारा कृतारवम् ॥ २०३॥ ततस्तदवलोक्यासौ शार्दूलो जातिमस्मरत् । उपशान्तश्च निर्मू : शरीराहारमध्यजत् ॥ २०४ ॥ शिलातले निविष्टं च 'संम्बस्तनिखिलोपधिम् । दिव्यज्ञानमबेनाइमा सहसावुद्ध तं मुनिः ॥ २०५ ॥ ततो नृपमुवाचेत्थम" स्मिन्चद्रावुपासकः । संम्बासं कुरुते कोऽपि स वा परिचर्यताम् ॥ २०६ ॥ स चक्रवर्त्तितामेत्य चरमाङ्गः पुरोः पुरा । सूनुर्भूत्वा परं धाम व्रजत्यत्र न संशयः ॥ २०७ ॥ इति तद्वचनाज्जातविस्मयो मुनिना समम् । गत्वा नृपस्तमद्राक्षीत् शार्दूलं कृतसाहसम् ॥२०८॥ ततस्तस्य सपर्यायां" "साचिभ्यमकरोन्नृपः । मुनिश्चास्मै ददौ ४ कर्णजापं स्वर्गी भवेत्यसौ व्याघ्रोऽष्टादशभिर्मक महोमिरुपसंहरन् । दिवाकरप्रभो नाम्ना देवोऽभूत्। तद्विमानके ॥ २१०॥
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घरके आँगन तथा नगरकी गलियोंमें सुगन्धित जल सींचकर इस प्रकार फूल बिखेर दो कि बीचमें कहीं कोई रन्ध्र खाली न रहे ।। १९८-१९९|| ऐसा करनेसे नगरमें जानेवाले मुनि अप्रासुक होनेके कारण नगरको अपने विहारके अयोग्य समझ लौटकर यहाँपर अवश्य ही आयेंगे ॥ २००॥ पुरोहितके वचनोंसे सन्तुष्ट होकर राजा प्रीतिवर्धनने वैसा ही किया जिससे मुनिराज लौटकर वहाँ आये ||२०१ || पिहितास्त्रव नामके मुनिराज एक महीनेके उपवास समाप्त कर आहार के लिए भ्रमण करते हुए क्रम-क्रमसे राजा प्रीतिवर्धनके घर में प्रविष्ट हुए ॥ २०२॥ राजाने उन्हें विधिपूर्वक आहार दान दिया जिससे देवोंने आकाशसे रत्नोंकी वर्षा की और वे रत्न मनोहर शब्द करते हुए भूमिपर पड़े || २०३ || राजा अतिगृधके जीव सिंहने भी वहाँ यह सब देखा जिससे उसे जाति-स्मरण हो गया । वह अतिशय शान्त हो गया, उसकी मूर्च्छा (मोह) जाती रही और यहाँतक कि उसने शरीर और आहारसे भी ममत्व छोड़ दिया || २०४|| वह सब परिग्रह अथवा कषायोंका त्याग कर एक शिलातलपर बैठ गया। मुनिराज पिहितास्रवने भी अपने अवधिज्ञानरूपी नेत्रसे अकस्मात् सिंहका सब वृत्तान्त जान लिया || २०५ || और जानकर उन्होंने राजा प्रीतिवर्धनसे कहा कि हे राजन, इस पर्वतपर कोई स्रावक होकर (स्रावकके व्रत धारण कर) संन्यास कर रहा है तुम्हें उसकी सेवा करनी चाहिए ॥ २०६ ॥ | वह आगामी कालमें भरतक्षेत्र के प्रथम तीर्थंकर श्रीवृषभदेवके चक्रवर्ती पदका धारक पुत्र होगा और उसी भवसे मोक्ष प्राप्त करेगा इस विषयमें कुछ भी सन्देह नहीं है ॥२०७॥ मुनिराजके इन वचनोंसे राजा प्रीतिवर्धनको भारी आश्चर्य हुआ। उसने मुनिराजके साथ वहाँ जाकर अतिशय साहस करनेवाले सिंहको देखा || २०८|| तत्पश्चात् राजाने उसकी सेवा अथवा समाधिमें योग्य सहायता की और यह देव होनेवाला है यह समझकर मुनिराजने भी उसके कानमें नमस्कार मन्त्र सुनाया॥२०९॥ वह सिंह अठारह दिन तक आहारका त्याग कर समाधि से शरीर छोड़ दूसरे
१. तेन कारणेन । २. नगरे भवाः । ३. वीथीः । ४. निविडम् । ५. - रप्यगमत्तथा प० । -रप्यागमसदा म०, ल० । ६. क्षपण उपवासः । ७. वोरचर्यामाचरन् । ८. निर्मोहः । ९. संत्यक्ताखिलपरिग्रहम् । १०. सम्मुनिः स० अ० | तन्मुनिः प०, ब० । ११ -मुवाचेद - प० । १२. आराधनायाम् । १३. सहायत्वम् । १४. पञ्चनमस्कारम् । १५ भवत्यसौ अ०, स०, ल० । १६. दिवाकर प्रभविमाने ।