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अष्टमं पर्व
१७५ निश्चित्येति समाहूय सुतौ मन्दरमालिनः । सुन्दर्याश्च खगाधीशो गन्धर्षपुरपालिनः ॥१२॥ 'चिन्तामनोगती स्निग्धौ शुची दक्षौ महान्वयौ । अनुरक्तौ श्रुताशेषशासार्थों कार्यकोविदौ ॥१३॥ करण्डस्थिततस्कार्यपत्री सोपायनौ तदा । प्रहिणोद् वज्रजहस्य पावें "सन्देशपूर्वकम् ॥१४॥ चक्रवर्ती वनं यातः सपुत्रपरिवारकः । पुण्डरीकस्तु राज्येऽस्मिन् पुण्डरीकाननः स्थितः ॥९५॥ क्व चक्रवर्तिनो राज्यं क्वायं बालोऽतिदुर्बलः । तदर्य पुङ्गवैर्धायें मरे दम्यो नियोजितः ॥१६॥ बालोऽयमबले चावां राज्यं चेदमनायकम् । "विशीर्णप्रायमेतस्य पालनं स्वयि तिष्ठते.' ॥१७॥ "भकालहरगं तस्मादागन्तव्यं महाधिया। स्वया स्वत्सविधानेन भूयाद् राज्यमविप्लवम् ॥९॥ इति वाचिकमादाय तौ तदोपेततुर्नमः । पयोदस्त्विरया" दूरमाकर्षन्ती समीपगान् ॥१९॥ क्वचिजलधरांस्नान स्वमार्गस्य निरोधिनः । विभिन्दन्तौ पयोविन्दून् क्षरतोऽशुलवानिव ॥१०॥ तौ पश्यन्तौ नदी+रात्" तन्वीरस्यन्तपाण्दुराः । धनागमस्य कान्तस्य विरहेणेष कर्शिताः ॥१०॥ मन्वानौ दूरभावेन पारिमाण्डल्यमागतान् । भूमाविव निमग्नाङ्गानर्कतापमयाद् गिरीन् ॥१०२॥
द्वारा अधिष्ठित (व्यवस्थित) हुआ इस बालकका यह राज्य अवश्य ही निष्कटंक हो जायेगा अन्यथा इसपर आक्रमण कर बलवान् राजा इसे अवश्य ही नष्ट कर देंगे ॥ ८९-९१ ॥ ऐसा निश्चय कर लक्ष्मीमतीने गन्धर्वपुरके राजा मन्दरमाली और रानी सुन्दरीके चिन्तागति और मनोगति नामक दो विद्याधर पुत्र बुलाये। वे दोनों ही पुत्र चक्रवर्तीसे भारी स्नेह रखते थे, पवित्र हृदयवाले, चतुर, उच्चकुलमें उत्पन्न, परस्परमें अनुरक्त, समस्त शाखोंके जानकार और कार्य करनेमें बड़े ही कुशल थे ।।९२-९३।। इन दोनोंको, एक पिटारेमें रखकर समाचारपत्र दिया तथा दामाद और पुत्रीको देनेके लिए अनेक प्रकारको भेंट दी और नीचे लिखा हुआ सन्देश कहकर दोनोंको वनजंघके पास भेज दिया ॥९४ ॥ 'वादन्त चक्रवर्ती अपने पुत्र और परिवारके साथ वनको चले गये हैं-वनमें जाकर दीक्षित हो गये हैं। उनके राज्यपर कमलके समान मुखवाला पुण्डरीक बैठाया गया है। परन्तु कहाँ तो चक्रवर्तीका राज्य और कहाँ यह दुर्बल बालक ? सचमुच एक बड़े भारी बैलके द्वारा उठाने योग्य भारके लिए एक छोटा-सा बछड़ा नियुक्त किया गया। यह पुण्डरीक बालक है और हम दोनों सास बहू स्त्री हैं इसलिए यह बिना स्वामीका राज्य प्रायः नष्ट हो रहा है। अब इसकी रक्षाआपपर ही अवलम्बित है। अतएव अविलम्ब आइए । आप अत्यन्त बुद्धिमान हैं। इसलिए आपके सन्निधानसे यह राज्य निरुपद्रव हो जायेगा' ।। ९५-९८॥ ऐसा सन्देश लेकर वे दोनों उसी समय आकाशमार्गसे चलने लगे। उस समय वे समीपमें स्थित मेघोंको अपने वेगसे दूर तक खींचकर ले जाते थे ॥९९॥ वे कहींपर अपने मार्गमें रुकावट डालनेवाले ऊँचे-ऊँचे मेघोंको चीरते हुए जाते थे। उस समय उन मेघोंसे जो पानीकी बूंदें पड़ रही थीं उनसे ऐसे मालूम होते थे मानो आँसू ही बहा रहे हों। कहीं नदियोंको देखते जाते थे, वेनदियाँ दूर होने के कारण ऊपरसे अत्यन्त कृश और श्वेतवणं दिखाई पड़ती थी जिससे ऐसा मालूम होता था मानो वर्षाकालरूपीपतिके विरहसे कश और पाण्डुरवर्ण हो गयी हों। वे पर्वत भी देखते जाते थे उन्हें दूरीके कारण वे पर्वत गोल-गोल दिखाई पड़ते थे
१.विद्याधरपतेः । २. चिन्तागतिमनोगतिनामानी। ३. स्नेहिती। ४. संस्कारयुक्तो। ५. सन्देशः वाचिकम् । 'सन्देशवाग वाचिकं स्यात् ।' ६.-वृषभश्रेष्ठः। ७. पुंगवोदायें अ०, ५०, स०। ८. भारे म०, ल। ९. बालवत्सः । १०. जोर्णसदृशम् । ११. निर्णयो भवति । १२. कालहरणं न कर्तव्यम् । १३. बापा. रहितम् । १४. 'सन्देशवाग् वाचिकं स्यात् ।' १५. वेगेन। १६. दूरत्वात् । १५. परमसूक्ष्मतम् । १८.-स्यसंगतान् प०, ल०।