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आदिपुराणम् मृदुबाहुलते कण्ठे गाढमासज्य सुन्दरी । कामपाशायिते तस्य मनोऽबध्नान् मनस्विनी ॥१०॥ मृदुपाणितले स्पर्श रसगन्धौ मुखाम्बुजे । शब्दमालपिते तस्याः तनौ रूपं निरूपयन् ॥११॥ सुचिरं तर्पयामास सोऽक्षप्राममशेषतः । सुखमैन्द्रियिक प्रेप्सो गति तः पराङ्गिनः ।।१२।। काञ्चीदाममहानागसंरुद्धेऽन्यैर्दुरासदे । रेमे तस्याः कटिस्थाने महतीव निधानकं ॥१३॥ कचग्रहैर्मूदीयोभिः कर्णोरपलविताढितैः । अभत् प्रणयकोपोऽस्या यूनः प्रीत्यै सुखाय च ॥१४॥ गलितामरणन्यासे रतिधर्माम्बुकर्दम । तस्यासीति रोऽस्याः सुखास्कर्षः स कामिनाम् ॥१५॥ सोधवातायनोपान्तकृतशय्यौ रतिश्रमम् । अपनिन्यतुरास्पृष्टौ" तौ शनैर्मृदुमारुतैः ।।१६॥... तस्या मुखेन्दुरालादं लोचने नयनोत्सवम् । स्तनौ स्पर्शसुखासंगमस्य तेनुर्दुरासदम् ।।१७॥ तत्कन्यामृतमासाद्य दिव्योषधमिवातुरः । स काले सेवमानोऽमत सुखी निर्मदनज्वरः ॥१८॥ कदाचिन्नन्दनस्पर्चिपराद्धर्थतरुशोमिषु । गृहोद्यानेषु रेमेऽसौ कान्तयामा महर्दिषु ॥१९॥
कदाचिद् बहिरुद्याने लतागृहविराजिनि । क्रीडाद्रिसहितेऽदीन्यत् प्रियया "सममुस्सुकः ॥२०॥ कीचड़से युक्त है और स्तनवस्त्र (कंचुकी) रूपी शेवालसे शोभित है ऐसे उस श्रीमतीके वक्षःस्थलरूपी सरोवरमें वह वनजंघ निरन्तर क्रीड़ा करता था।॥९॥उस सुन्दरी तथा सहृदया श्रीमतीने कामपाशके समान अपनी कोमल भुजलताओंको वनजंघके गलेमें डालकर उसका मन बाँध लिया था-अपने वश कर लिया था।॥१०॥ वह वनजंघ श्रीमतीकी कोमल बाहुओंके स्पर्शसे स्पर्शन इन्द्रियको, मुखरूपी कमलके रस और गन्धसे रसना तथा घ्राण इन्द्रियको, सम्भाषणके समय मधुर शब्दोंको सुनकर कर्ण इन्द्रियको और शरीरके सौन्दर्यको निरखकर नेत्र इन्द्रियको तृप्त करता था। इस प्रकार वह पाँचों इन्द्रियोंको सब प्रकारसे चिरकाल तक सन्तुष्ट करताथा सो ठीक ही है इन्द्रियसुख चाहनेवाले जीवोंको इसके सिवाय और कोई उपाय नहीं है ॥११-१२॥ करधनीरूपी महासर्पसे घिरे हुए होनेके कारण अन्यपुरुषोंको अप्राप्य श्रीमतीके कटिभागरूपी बड़े खजानेपर वनजंघ निरन्तर क्रीड़ा किया करता था ।।१३।। जब कभी श्रीमती प्रणयकोपसे कुपित होती थी तब वह धीरे-धीरे वनजंघके केश पकड़कर खींचने लगती थी तथा कर्णोत्पलके कोमल प्रहारोंसे उसका ताड़न करने लगती थी। उसकी इन चेष्टाओंसे वनजंघको बड़ा ही सन्तोष और सुख होता था॥१४॥ परस्परकी खींचातानीसे जिसके आभरण अस्त-व्यस्त होकर गिर पड़े हैं तथा जो रतिकालीन स्वेद-बिन्दुओंसे कर्दम युक्त हो गया है ऐसे श्रीमतीके शरीरमें उसे बड़ा सन्तोष होता था। सो ठीक है कामीजन इसीको उत्कृष्ट सुख समझते हैं ॥१५॥ राजमहलमें झरोखेके समीप ही इनकी शय्या थी इसलिए झरोखेसे आनेवाली मन्द-मन्द वायुसे इनका रति-श्रम दूर होता रहता था ॥१६।। श्रीमतीका मुखरूपी चन्द्रमा वनजंघके आनन्दको बढ़ाता था, उसके नेत्र, नेत्रोंका सुख विस्तृत करते थे तथा उसके दोनों स्तन अपूर्व स्पर्श-सुखको बढ़ाते थे ॥१७॥ जिस प्रकार कोई रोगी पुरुष उत्तम औषध पाकर समयपर उसका सेवन करता हुआ ज्वर आदिसे रहित होकर सुखी हो जाता है उसी प्रकार वनजंघ भी उस कन्यारूपी अमृतको पाकर समयपर उसका सेवन करता हुआ काम-ज्वरसे रहित होकर सुखी हो गया था ॥१८॥ वह वनजंघ कभी तो नन्दन वनके साथ स्पर्धा करनेवाले श्रेष्ठ वृक्षोंसे शोभायमान और महाविभूतिसे युक्त घरके उद्यानोंमें श्रीमतीके साथ रमण करता था और कभी लतागृहों
१. संसक्ती कृत्वा । २. 'क्लेशैरुपहतस्यापि मानसं सुखिनो यथा। स्वकार्येषु स्थिरं यस्य मनस्वीत्युच्यते बुधः ॥' ३. शरीरे। ४. पश्यन् । ५. इन्द्रियसमुदायम् । ६. -मैन्द्रियकं द०, स०, म०, ल.। ७. प्राप्तुमिच्छोः । ८. उपायः। ९. 'त' पुस्तके 'विताडनैः' इत्यपि पाठः। १०. मुद्। ११. ईषत्स्पृष्टौ। १२. व्याधिपीडितः । १३. स समुत्सुक: म०, ल.।