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आदिपुराणम्
श्रीमतीतनयाश्चामी वीरबाहुपुरोगमाः । समं राजर्षिणाऽनेन तदा संयमिनोऽभवन् ॥५८॥ "यमैः सममुपारुढ शुद्धिभिर्विहरन्नसौ । क्रमादुत्पाद्यं कैवल्यं परं धाम समासदत् ॥५९॥ वज्रजङ्घस्ततो राज्यसंपदं प्राप्य पैतृकीम्। "निरविक्षचिरं भोगान् प्रकृतीरनुरञ्जयन् ॥ ६० ॥ अथान्यदा महाराजो वज्रदन्तो महर्द्धिकः । सिंहासने सुखासीनो नरेन्द्रः परिवेष्टितः ॥ ६१ ॥ तथासीनस्य' चोद्यानपाली विकसितं नवम् । सुगन्धिपद्ममानीय तस्य हस्ते ददौ मुदा ॥६२॥ पाणौ तदाजिघ्रन् स्वाननामोदसुन्दरम् । संप्रीतः करपद्मेन सविभ्रममविभ्रमत् ॥ ६३ ॥ तद्गन्धलोलुपं तत्र रुद्धं लोकान्तराश्रितम् " । ष्ट्टाकिं विषयासंगाद् विरराम सुधीरसौ ॥ ६४ ॥ अहो मदालिरेषोऽत्र गन्धाकृत्या रसं पिबन् । दिनापाये निरुद्धोऽभूद् "व्यसुर्धिविषयैषिताम् ॥६५॥ विषया विषमाः पाके किम्पाकसदृशा इमे । आपातरम्या धिगिमाननिष्टफलदायिनः ॥६६॥ अहो धिगस्तु भोगाङ्गमिदमङ्गं शरीरिणाम् । "बिलीयते " शरन्मेघ विलायमतिपेलवम् ॥ ६७ ॥ तडिदुम्मिषिता 'लोला लक्ष्मीराकालिकं सुखम् । इमाः स्वप्न द्विदेशीया" विनश्वयों धनर्द्धयः ॥ ६८ ॥
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राज्य तथा भोगों से विरक्त हो शीघ्र ही श्रीयमधरमुनिके समीप जाकर पाँच सौ राजाओंके साथ जिनदीक्षा ले ली ॥५७॥। उसी समय वीरबाहु आदि श्रीमतीके अट्ठानबे पुत्र भी इन्हीं राजऋषि
बाहुके साथ दीक्षा लेकर संयमी हो गये ||५८ ॥ वज्रबाहु मुनिराजने बिशुद्ध परिणामोंके धारक वीरबाहु आदि मुनियोंके साथ चिरकाल तक विहार किया फिर क्रम-क्रमसे केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्षरूपी परमधामको प्राप्त किया || ५९ ॥ उधर वजजंघ भी पिताकी राज्य- विभूति प्राप्त कर प्रजाको प्रसन्न करता हुआ चिरकाल तक अनेक प्रकारके भोग भोगता रहा ॥ ६०॥ अन्तर किसी एक दिन बड़ी विभूतिके धारक तथा अनेक राजाओंसे घिरे हुए महाराज वदन्त सिंहासनपर सुखसे बैठे हुए थे || ६१|| कि इतनेमें ही वनपालने एक नवीन खिला हुआ सुगन्धित कमल लाकर बड़े हर्षसे उनके हाथपर अर्पित किया || ६२|| वह कमल राजाके मुखकी सुगन्धके समान सुगन्धित और बहुत ही सुन्दर था। उन्होंने उसे अपने हाथमें, लिया और अपने करकमलसे घुमाकर बड़ी प्रसन्नताके साथ सूँघा ॥ ६३॥| उस कमलके भीतर उसकी सुगन्धिका लोभी एक भ्रमर रुककर मरा हुआ पड़ा था। ज्यों ही बुद्धिमान् महाराजने उसे देखा त्यों ही वे विषयभोगोंसे विरक्त हो गये || ६४ || वे विचारने लगे कि – अहो, यह मदोन्मत्त भ्रमर इसकी सुगन्धिसे आकृष्ट होकर यहाँ आया था और रस पीते-पीते ही सूर्यास्त हो जानेसे इसी में घिरकर मर गया। ऐसी विषयोंकी चाहको धिक्कार हो ||६५ || ये विषय किंपाक फलके समान विषम हैं । प्रारम्भकालमें अर्थात् सेवन करते समय तो अच्छे मालूम होते हैं परन्तु फल देते समय अनिष्ट फल देते हैं इसलिए इन्हें धिक्कार हो ||६६ || प्राणियों का यह शरीर जो कि विषय-भोगोंका साधन है शरद् ऋतुके बादलके समान क्षण-भर में विलीन हो जाता है इसलिए ऐसे शरीरको भी धिक्कार हो || ६७|| यह लक्ष्मी बिजलीकी चमक के समान चंचल है, यह इन्द्रिय-सुख भी अस्थिर है और धन-धान्य आदिकी विभूति भी स्वप्न में प्राप्त हुई विभूतिके
१. प्रमुखाः । २. युगलैः, श्रीमतीपुत्रः । ३ श्रुता । ४. पितुः सकाशादागता पैतृकी ताम् । 'उष्ठन्' इति सूत्रेण आगतार्थे ठन् । ततः स्त्रियां ङीप्प्रत्ययः । ५ अन्वभूत् । ६ प्रजापरिवारान् । ७. तदासीनस्य म०, ल० । ८. स्वीकृत्य । 'नित्यं हस्ते पाणी स्वीकृती' इति नित्यं तिसंज्ञो भवतः । ९. -- मतिभ्रमात् प० । -मविभ्रमन् ल० । १०. तत् कमलम् । ११. मरणमाश्रितम् । १२. विषयासक्तेः । १३. अपसरति स्म । १४. मकरन्दम् । १५० गतप्राणः । १६. विषयवाञ्छाम् । १७. अनुभवनकालः । १८. भोगकारणम् । १९. विलीयेत ल० । २०. शरदभ्रमिव । २१. अस्थिरम् । २२. कान्तिः । २३. चञ्चलम् । २४ स्वप्न संपत्समानाः ।