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आदिपुराणम् ततो वधूवरं सिद्ध स्नानाम्भःपूतमस्तकम् । निवेशितं महाभासि सञ्चामीकरपट्ट के ॥२४५।। स्वयं स्म करकं धत्ते चक्रवर्ती महाकरः । हिरण्मयं महारत्नखचितं मौक्तिकोज्ज्वलम् ॥२४६॥ अशोकपल्लवैवक्त्रनिहितैः करको बमौ । करपल्लवसच्छायामनुकुवंशिवानयोः ।।२४७॥ ततो न्यपाति करकाद्धारा तत्करपल्लवे । दूरमावर्जिता दीर्घ भवन्तौ जीवतामिति ॥२४८॥ ततः पाणौ महाबाहुर्वव्रजकोऽग्रहीन्मुदा । श्रीमती तन्मृदुस्पर्शसुखामीलितलोचनः ॥२४९।। 'श्रीमती तस्करस्पर्शाद् धर्मबिन्दूनधारयत् । चन्द्रकान्तशिलापुत्री चन्द्रांशुस्पर्शनादिव ॥२५णा वज्रजकरस्पर्शात् 'तनुतोऽस्याविरं प्रतः । संतापः कापि याति स्म भूमरिव धनागमे ॥२५॥ वज्रजासमासंगात् श्रीमती म्यधुतत्तराम् । कल्पवल्लीव संश्लिष्टतुकल्यमहोलहा ॥२५शा सोऽपि पर्यन्तवर्त्तिन्या तया लक्ष्मी परामधात् । बीसृष्टेः परया कोट्या रत्येव कुसुमायुधः ॥२५॥
गुरुसाक्षि तयोरित्यं विवाहः परमोदयः । निरवर्तत" लोकस्य परमानन्दमादधत् ॥२५४।। - ततः पाणिगृहीती तां ते जना बहुमेनिरे । श्रीमती सत्यमेवेयं श्रीमतोस्युद्गिरस्तदा ॥२५५।।
तौ दम्पती सदाकारौ सुरदम्पतिविभ्रमौ । जनानां पश्यतां चित्त निर्व वारामृतायितौ ॥२५६।। करते हुए नूपुर और मेखलाओंसे मनोहर नृत्य कर रही थीं ॥२४४॥ तदनन्तर जिनके मस्तक सिद्ध प्रतिमाके जलसे पवित्र किये गये हैं ऐसे वधू-वर अतिशय शोभायमान सुवर्णके पाटेपर बैठाये गये ।।२४५॥ घुटनों तक लम्बी भुजाओंके धारक चक्रवर्तीने स्वयं अपने हाथमें भंगार धारण किया। वह श्रृंगार सुवर्णसे बना हुआ था, बड़े-बड़े रनोंसे खचित था तथा मोतियोंसे अतिशय उज्ज्वल था ।।२४६।। मुखपर रखे हुए अशोक वृक्षके पल्लवोंसे वह श्रृंगार ऐसा शोभायमान हो रहा था मानो इन दोनों वर-वधुओंके हस्तपल्लवकी उत्तम कान्तिका अनुकरण ही कर रहा हो ॥२४७॥ तदनन्तर आप दोनों दीर्घकाल तक जीवित रहें, मानो यह सूचित करनेके लिए ही ऊँचे गारसे छोड़ी गयी जलधारा वनजंघके हस्तपर पड़ी ॥२४॥
तत्पश्चात् बड़ी-बड़ी भुजाओंको धारण करनेवाले वनजंघने हर्षके साथ श्रीमतीका पाणिग्रहण किया। उस समय उसके कोमल स्पर्शके सुखसे वनजंघके दोनों नेत्र बन्द हो गये थे ।।२४९॥ वनजंघके हाथके स्पर्शसे श्रीमतीके शरीरमें भी पसीना आ गया था जैसे कि चन्द्रमाकी किरणोंके ससे चन्द्रकान्त मणिको बनी हुई पुतलीमें जलबिन्दु उत्पन्न हो जाते हैं ॥२५०॥ जिस प्रकार मेघोंकी वृष्टिसे पृथ्वीका सन्ताप नष्ट हो जाता है उसी प्रकार वनजंघके हाथके स्पर्शसे श्रीमतीके शरीरका चिरकालीन सन्ताप भी नष्ट हो गया था ॥२५१॥ उस समय वनजंघके समागमसे श्रीमती किसी बड़े कल्पवृक्षसे लिपटी हुई कल्प-लताकी तरह सुशोभित हो रही थी ॥२५२॥ वह श्रीमती स्त्री-संसारमें सबसे श्रेष्ठ थी, समीपमें बैठी हुई उस श्रीमतीसे वह वनजंघ भी ऐसा सुशोभित होता था जैसे रतिसे कामदेव सशोभित होता है ॥२५३॥ इस प्रकार लोगोंको परमानन्द देनेवाला उन दोनोंका विवाह गुरुजनोंकी साक्षीपूर्वक बड़े वैभवके साथ समाप्त हुआ ॥२५४॥ उस समय सब लोग उस विवाहिता श्रीमतीका बड़ा आदर करते थे और कहते थे कि यह श्रीमती सचमुच में श्रीमती है अर्थात् लक्ष्मीमती है ॥२५५॥ उत्तम आकृतिके धारक, देव-देवाङ्ग
१. सिद्धप्रतिमाभिषेकजलम् । २. सौवणे वधूवरासने । ३. भृङ्गारः। ४. दम्पत्योः । ५. पतितम् । ६. वजजङ्गहस्ते । ७. विसृष्टा। ८. अयं श्लोकः 'धर्मबिन्दून्' इत्यस्य स्थाने 'स्वेदविन्दून्' इति परिवर्त्य द्वितीयस्तवके चन्द्रप्रभचरिते स्वकीयप्रपाङ्गतां नीतः। ९. पुत्रिका। १०. शरीरे । ११. वर्तितम् । १२. पाणिगृहीतां प०, अ०, स०, म०, २०, ल.। १३. अतुषत् । 'वृञ् वरणे' लिट् । निर्वति संतोष गतवत् इत्यर्थः।