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Seventh Chapter They were adorned with garlands that hung down to their knees, their faces radiant with the brilliance of the gems they wore. Their beauty was like the moonlight of autumn or the delicate strands of a lotus. Their arms, adorned with bracelets, armlets, keyuras, and rings, resembled the branches of a wish-fulfilling tree. Their hips were encircled with sashes, and the tinkling of the small bells attached to them echoed like the triumphant sounds of an elephant's victory drums. Their feet, adorned with anklets, resonated with the sweet sounds of bees buzzing around lotus flowers. They were adorned with all the ornaments befitting a wedding, their beauty itself being their greatest adornment. Lakshmi, the goddess of wealth, adorned her daughter, Srimatī, just as the earth, Vasundhara, adorned her son, Jangh. After being adorned, they were seated on a jeweled platform, where auspicious rituals had already been performed. The platform, illuminated by gem-studded lamps and adorned with auspicious objects, shone like the peak of Mount Meru, adorned with gods and goddesses. The deep, resonant sounds of drums, struck with sticks, echoed like the roar of the ocean. The women sang auspicious songs, while the bards and the singers chanted auspicious verses, their voices filled with enthusiasm. The dancers, with their arched eyebrows, performed a graceful dance, their anklets jingling rhythmically.
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________________ सप्तमं पर्व आजानुलम्यमानेन तौ प्रालम्बेन' रेजतुः । शरज्ज्योत्स्नामयेनेव मृणालच्छविचारुणा ॥२३४॥ कटकालकेयूर मुद्रिका दिविभूषणः । बाहू व्यरुवतां कल्पतरुशाखाच्छवी तयोः ॥ २३५॥ " जघने रसनावेष्टं' 'किङ्किणीकृत निःस्वनम् । तावनङ्गद्विपस्येव जयडिण्डिममूहतुः ॥ २३६ ॥ मणिनूपुरशङ्कारैः क्रमौ शिश्रियतुः श्रियम् । श्रीमत्याः पद्मयोर्भुङ्गकलनिःक्वणशोमिनोः ॥ २३७॥ महालंकृतिमाचार इत्येव विभ्रतः स्म तौ । अभ्यर्था सुन्दराकारशोभैवालं कृतिस्तयोः ॥२३८॥ लक्ष्मीमतिः स्वयं लक्ष्मीरिव पुत्रीमभूषयत् । पुत्रं च भूषयामास वसुधेव वसुन्धरा ॥ २३९ ॥ प्रसाधनविधेरन्ते यथास्वं तौ निवेशितौ । रत्नवेदीतटे पूर्व कृतमङ्गलसरिक्रये ॥ २४० ॥ मणिप्रदीपरुचिरा मङ्गलैरुपशोभिता । वमौ वेदी तदाक्रान्ता' सामरेवाद्विराट्तटी ॥२४१|| ततो मधुरगम्भीरमानकाः कोणता डिताः । दध्वनुध्वं नदम्मोधि" गभीरध्वनयस्तदा ॥ २४२ ॥ मङ्गलोद्गानमातेनुर्वारवध्वः कलं तदा । "उत्साहान् पेठुरभितो वन्दिनः" सह" मागधाः || २४३ || वर्द्धमानलयैनृत्तमारेभे ललितं तदा । वाराङ्गनामिरुद्भ्रूभी रणन्नूपुरमेखलम् ॥ २४४ ॥ १३ १४ १५९ धारण किये थे कि जिनमें लगे हुए रत्नोंकी किरणोंसे उनका मुख-कमल उत्कृष्ट शोभाको प्राप्त हो रहा था ।। २३३ ।। वे दोनों शरदूऋतुकी चाँदनी अथवा मृणाल तन्तुके समान सुशोभित सफेद, घुटनों तक लटकती हुई पुष्पमालाओंसे अतिशय शोभायमान हो रहे थे || २३४|| कड़े, बाजूबंद, केयर और अँगूठी आदि आभूषण धारण करनेसे उन दोनोंकी भुजाएँ भूषणांग जातिके कल्पवृक्षकी शाखाओंकी तरह अतिशय सुशोभित हो रही थीं ||२३५|| उन दोनोंने अपने-अपने नितम्ब भागपर करधनी पहनी थी। उसमें लगी हुई छोटी-छोटी घण्टियाँ (बोरा) मधुर शब्द कर रही थीं । उन करधनियोंसे वे ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो उन्होंने कामदेवरूपी हस्तीके विजय- सूचक बाजे ही धारण किये हों ॥ २३६ ॥ श्रीमतीके दोनों चरण मणिमय नूपुरोंकी शंकारसे ऐसे मालूम होते थे मानी भ्रमरोंके मधुर शब्दोंसे शोभायमान कमल ही हों ॥ २३७॥ विवाह के समय आभूषण धारण करना चाहिए, केवल इसी पद्धतिको पूर्ण करनेके लिए उन्होंने बड़े-बड़े आभूषण धारण किये थे नहीं तो उनके सुन्दर शरीरकी शोभा ही उनका आभूषण थी ||२३८|| साक्षात् लक्ष्मीके समान लक्ष्मीमतिने स्वयं अपनी पुत्री श्रीमतीको अलंकृत किया था और साक्षात् वसुन्धरा ( पृथिवी) के समान वसुन्धराने अपने पुत्र व जंघको आभूषण पहनाये थे || २३९ || इस प्रकार अलंकार धारण करनेके बाद वे दोनों जिसकी मंगलक्रिया पहले ही की जा चुकी है ऐसी रत्न - वेदीपर यथायोग्य रीतिसे बैठाये गये || २४०॥ मणिमय दीपकों के प्रकाशसे जगमगाती हुई और मङ्गल-द्रव्योंसे सुशोभित वह वेदी उन दोनोंके बैठ जानेसे ऐसी शोभायमान होने लगी थी मानो देव देवियोंसे सहित मेरु पर्वतका तट ही हो ॥ २४२॥ उस समय समुद्रके समान गम्भीर शब्द करते हुए, डंडोंसे बजाये गये नगाड़े बड़ा ही मधुर शब्द कर रहे थे ||२४२|| वाराङ्गनाएँ मधुर मंगल गीत गा रही थीं और बन्दीजन मागध जनोंके - साथ मिलकर चारों ओर उत्साहवर्धक मङ्गल पाठ पढ़ रहे थे ।। २४३ ॥ जिनकी भौंहें कुछकुछ ऊपरको उठी हुई हैं ऐसी वाराङ्गनाएँ लय-तान आदिसे सुशोभित तथा रुन-झुन शब्द १. हारविशेषेण । 'प्रालम्बमृजुलम्बि स्यात्' इत्यमरः । २. भुजाभरणम् । ३. भुजशिखराभरणम् । ४. जघनं अ०, प०, स०, द०, ल० । ५. काञ्चीदामवलयम् । ६. क्षुद्रघण्टिका । ७. इत्येवं अ०, प०, स०, ६० । ८. आचाराभावे । ९ तद्वधूवराक्रान्ता । १०. कोणः वाद्यताडनोपकरणम् । 'कोण: वोणादिवादनम्' इत्यभिधानात् । ११. गम्भीर अ०, प०, स०, ६०, ल० | १२. मङ्गलाष्टकान् । १३. स्तुतिपाठकाः । १४. वंशबीर्यादिस्तुत्युपजीविनः । सहमागधी अ०, प०, स०, ६०, ल० ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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