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आदिपुराणम् सीमन्धराहत्पादाब्जमूले षोडशकारणीम् । भावयन् सुचिरं तेपे तपो निरतिचारकम् ॥४॥ स्वायुरन्तेऽहमिन्द्रोऽभूद् अवेयेणूंमध्यमे । त्रिंशदग्भ्युपमं कालं दिव्यं तत्रान्वभूत् सुखम् ॥४९॥ ततोऽवतीर्णः स्वर्गामात् पुष्कराईपुरोगते । विदेहे मङ्गलावत्यां प्राक्पुरे रखसंचये ॥१०॥ अजितंजयभूपालाद् वसुमत्याः सुतोऽभवत् । युगन्धर इति ख्यातिमुद्वहन् नृसुरार्चितः ॥११॥ कल्याणत्रितये वर्या स सपर्यामवापिवान् । क्रमात् बैवल्यमुत्पाथ महानेष महीयते ॥१२॥ शुमानुबन्धिना सोऽयं कर्मणाऽभ्युदवं सुलम् । षट्पष्व्यम्प्युपमं कालं भुक्त्वाईन्त्यमथासदत् ॥१५॥ 'युग्यो धर्मरथस्यायं युगज्येष्ठो युगंधरः । तीर्थकृत् त्रायते सोऽस्मान् मण्याजवनभानुमान् ॥९॥ तदेति मद्वचः श्रुत्वा बहवो दर्शनं श्रिताः । युवां च धर्मसंवर्ग परमं समुपागतौ ॥१५॥ पिहितानवमहारकैवल्योपजनक्षणे । समं गत्वार्थविज्या मस्तदा पुत्रि स्मरस्यदः ॥९॥ अभिजानासि तत्पुत्रि स्वयंभूरमणोदधिम् । क्रीडाहतोत्रंजिण्यामो गिरिं चाशनसंज्ञकम् ॥९॥ श्रीमती गुरुणेत्युक्ता तात युष्मप्रसादतः । अमिजानामि तत्सर्वमित्यसौ प्रत्यभाषत ॥९८॥
"गुरोः स्मरामि कैवल्यपूजा पतिलके गिरौ । "विहृतिं चाजने शैले स्वयंभूरमणे च यत् ॥१९॥ होकर पहले तो चिरकाल तक प्रजाका शासन किया और फिर भोगोंसे विरक्त हो जिनदीक्षा धारण की ॥ ८७॥ सीमन्धर स्वामीके चरणकमलोंके मूलमें सोलह कारणभावनाओंका चिन्तवन करते हुए उसने बहुत समय तक निर्दोष तपश्चरण किया ॥८॥ फिर आयुका अन्त होनेपर उपरिम प्रैवेयकके मध्यभाग अर्थात् आठवें प्रैवेयकमें अहमिन्द्र पद प्राप्त किया । वहाँ तीस सागर तक दिव्य सुखोंका अनुभव कर वहाँसे अवतीर्ण हुआ और पुष्कराध द्वीपके पूर्व विदेह क्षेत्रमें मंगलावती देशके रत्न-संचय नगरमें अजितंजय राजाकी वसुमती रानीसे युगन्धर नामका प्रसिद्ध पुत्र हुआ। वह पुत्र मनुष्य तथा देवों-द्वारा पूजित था ।।८९-९१॥ वही पुत्र गर्भ, जन्म और तप इन तीनों कल्याणोंमें इन्द्र आदि देवों-द्वारा की हुई पूजाको प्राप्त कर आज अनुक्रमसे केवलज्ञानी हो सबके द्वारा पूजित हो रहा है ॥९२ ॥ इस प्रकार उस प्रहसितके जीवने पुण्यकर्मसे छयासठ सागर (१६+२०+३०=६६) तक स्वर्गोंके सुख भोग कर अरहन्त पद प्राप्त किया है ।१३।। ये युगन्धर स्वामी इस युगके सबसे श्रेष्ठ पुरुष हैं, तीर्थकर हैं, धर्मरूपी रथके चलानेवाले हैं तथा भव्य जीवरूप कमल वनको विकसित करनेके लिए सूर्यके समान हैं। ऐसे ये तीर्थकर देव हमारी रक्षा करें-संसारके दुःख दूर कर मोक्ष पद प्रदान करें।R४|| उस समय मेरे ये वचन सुनकर अनेक जीव सम्यग्दर्शनको प्राप्त हुए थे तथा आप दोनों भी (ललितांग और स्वयम्प्रभा) परम धर्मप्रेमको प्राप्त हुए थे॥९५ ॥ हे पुत्रि, तुम्हें इस बातका स्मरण होगा कि जब पिहितास्रव भट्टारकको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था उस समय हम लोगोंने साथ-साथ जाकर ही उनकी पूजा की थी॥१६॥ हे पुत्रि, तू यह भी जानती होगी कि हमलोग क्रीड़ा करनेके लिए स्वयम्भूरमण समुद्र तथा अंजनगिरिपर जाया करते थे ॥१७॥ इस प्रकार पिताके कह चुकनेपर श्रीमतीने कहा कि हे तात, आपके प्रसादसे मैं यह सब जानती हूँ IRI अम्बरतिलक पर्वतपर गुरुदेव पिहितास्रव मुनिके केवलज्ञानकी जो पूजा की थी वह भी
१. षोडशकारणानि । षोडशकारणानां समाहारः । २-कारणम् अ०, १०, ८० स, ल। ३. षट्षष्टयम्यूपमम् इत्यस्य पदस्य निर्वाहः क्रियते । महाशुक्रे स्वर्गे षोडशाध्युपमस्थितिः । प्राणते कल्पे विंशत्यष्यपमायः स्थितिः। ऊर्ध्ववेयेषु ऊर्ध्वमध्यमे त्रिंशवन्ध्युपमायुः स्थितिः । एतेषामायुषां सम्मेलने षट्पष्टप पमः कालो जात इति यावत् । ४. युगवाहः । ५. जायतां सो-प०, म०, ६०, स०, ल०।-त्रायतां तस्मात् ब०, स०। ६. धर्मे धर्मफले चानुरागः संवेगस्तम् । ७. केवलज्ञानोत्पत्तिसमये। ८. पूजयिष्यामः । 'स्मत्यर्थे यदि डिति' भूतानद्यतने लट् । ९. अंगमाम । १०. प्रत्युत्तरमदात्। ११. पिहितास्रवस्य । १२. अम्बरतिलके। १३. विहृतं द०, ट० । विहरणम् ।