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सप्तमं पर्व कियन्मात्रमिदं देव स्वापतेयं परिक्षयि । स्वयाज्यकरणी दृष्टिरलमेषार्पिता मयि ॥१८९|| अहमच कृती धन्यो जोवितं इलाध्यमय मे । यद् वीक्षितोऽस्मि देवेन स्नेहनिर्भरया दशा ॥१९०॥ परोपकृतये विभ्रत्यर्थवत्तां भवद्विधाः । लोके प्रसिद्धसाधुत्वाः शब्दा इव कृतागमाः ॥१९॥ तदेव वस्तु वस्तुष्ट्यै सोपयोगं यदर्थिनाम् । भविमक्तधनायास्तु बन्धुतायाँ विशेषतः ॥१९२॥ तदेतत् स्वैरसंभोग्यमास्तां 'सांन्यासिकं धनम् । न मे मानग्रहः कोऽपि त्वयि नानादरोऽपि वा ।।१९३॥ प्रार्थयेऽहं तथाप्येतद् युष्मदाज्ञा प्रपूजयन् । श्रीमती वज्रजकाय देया कन्योत्तमा त्वया ॥१९॥ भागिनेयत्वमस्स्येकमाभिजात्यं च"तस्कृतम् । योग्यतां चास्य पुष्णाति सत्कारोऽद्य त्वया कृतः।।१९५॥ अथवैतत् खलूक्स्वार्य सर्वथाहति कन्यकाम् । हसन्त्याच रुदन्त्याश्च प्राघूर्णक" इति श्रुतेः ॥१९६।। तत्प्रसीद विमो दातुं भागिनेयाय कन्यकाम् । सफला प्रार्थना मेऽस्तु "कुमारः सोऽस्तु तत्पतिः ।।१९७।।
स्नेहकी सबसे ऊँची भूमिपर ही चढ़ा दिया है ।। १८८ ॥ हे देव, नष्ट हो जानेवाला यह धन कितनी-सी वस्तु है ? यह आपने सम्पन्न बनानेवाली अपनी दृष्टि मुझपर अर्पित कर दी है मेरे लिए यही बहुत है ॥१८९॥ हे देव, आज आपने मुझे स्नेहसे भरी हुई दृष्टि से देखा है इसलिए मैं आज कृतकृत्य हुआ हूँ, धन्य हुआ हूँ और मेरा जीवन भी आज सफल हुआ है ।। १९० ।। हे देव, जिस प्रकार लोकमें शास्त्रोंकी रचना करनेवाले तथा प्रसिद्ध धातुओंसे बने हुए जीव अजीव आदि शब्द परोपकार करनेके लिए ही अर्थोंको धारण करते हैं, उसी प्रकार आप-जैसे उत्तम पुरुष भी परोपकार करने के लिए हो अर्थों (धन-धान्यादि विभूतियों) को धारण करते हैं ॥ १९१॥
हे देव, आपको उसी वस्तुसे सन्तोष होता है जो कि याचकोंके उपयोगमें आती है और इससे भी बढ़कर सन्तोष उस वस्तुसे होता है जो कि धन आदिके विभागसे रहित (सम्मिलित रूपसे रहनेवाले) बन्धुओंके उपयोगमें आती है ।। १९२ ॥ इसलिए, आपके जिस धनको मैं अपनी इच्छानुसार भोग सकता हूँ ऐसा वह धन धरोहररूपसे आपके ही पास रहे, इस समय मुझे आवश्यकता नहीं है। हे देव, आपसे धन नहीं माँगने में मुझे कुछ अहंकार नहीं है और न आपके विषयमें कुछ अनादर ही है ॥ १९३ ।। हे देव, यद्यपि मुझे किसी वस्तुकी आवश्यकता नहीं है तथापि आपकी आज्ञाको पूज्य मानता हुआ आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप अपनी श्रीमती नामको उत्तम कन्या मेरे पुत्र वनजंघके लिए दे दीजिए ॥ १९४॥ यह वनजंघ प्रथम तो आपका भानजा है, और दूसरे आपका भानजा होनेसे ही इसका उञ्चकुल प्रसिद्ध है। तीसरे आज आपने जो इसका सत्कार किया है वह इसकी योग्यताको पुष्ट कर रहा है ।। १९५ ।। अथवा यह सब कहना व्यर्थ है। वनजंघ हर प्रकारसे आपको कन्या ग्रहण करने के योग्य है। क्योंकि लोकमें ऐसी कहावत प्रसिद्ध है कि कन्या चाहे हँसती हो चाहे रोती हो, अतिथि उसका अधिकारी होता है ।। १९६ ।। इसलिए हे
१. अनाढ्यः आढ्यः क्रियते यया सा। 'कृञ् करणे' खनट् । २. उपकाराय । ३. धनिकताम् । पक्षे अभिधेयवत्त्वम् । 'अर्थोऽभिधेयरवस्तुप्रयोजननिवृत्तिषु ।' इत्यमरः। ४. -प्रसिद्धबातुत्वात् अ०, ल०। लोकप्रसिद्धधातुत्वात् स०। ५. सूत्रानुसारेण निष्पन्नाः। कृती गताः म० । कृतागताः ट०। ६. युष्माकम् । ७. बन्धुसमूहस्य 'ग्रामजनबन्धुगजसहायात्तल' इति समूहे तल । ८. तत्कारणात् । ९. निक्षिप्तम् । १०. कुलजत्वम् । ११. भागिनेयत्वकृतम् । १२. वचनेनालम् । 'निषेधेऽलंखलो क्त्वा' इति क्त्वाप्रत्ययः। १३. -इचारुदन्त्यश्च प०, म०, ल०। १४. अभ्यागतः । प्राणिकः ट०। १५. 'कुमारः कौमारः' इति हो पाठी 'त०, ब०' पुस्तकयोः । कौमारः अ०, प०, स०, द०, म०, ल०, ट० । कुमारीहृदयं प्राप्तः ।