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महापुराणम् इत्यादितद्गतालापैः श्रन्य॒स्तां सुखमानयत् । पण्डिता सा तु तत्प्राप्तौ नाचाप्यासीचिराकुला॥१७॥ तावच चक्रिणा बन्धुप्रीतिमातन्वता पराम् । गत्वार्धपथमानीतो वज्रबाहुमहीपतिः ॥१७॥ "स्वसुः पतिं स्वसारं च स्वस्त्रीयं च विलोकयन् । प्रापचक्री परां प्रीतिं प्रेम्णे दृष्टा हि बन्धुता ॥१९॥ सुखसंकथया कांचित् स्थित्वा कालकलां पुनः। प्रापूर्णकोचितां तेऽमी सस्क्रियां तेन लम्भिताः ॥१८॥ चक्रवर्शिकृतां प्राप्य वज्रबाहुः स माननाम् । पिप्रिये ननु संप्रीत्यै सत्कारः प्रभुणा कृतः॥१८॥ यथासुखं च संतोषात् स्थितेष्वेवं सनामिषु । ततश्चक्रधरो वाचमित्यवोचत् स्वसुः पतिम् ।।१८२॥ यत् किंचिद् रुचितं तुभ्यं वस्तुजालं''ममालये । तद् गृहाण यदि प्रीतिर्मयि तेऽस्त्यनियन्त्रणा ॥१८३॥ प्रीतेरय परां कोटिमधिरोहति मे मनः । त्वं सतुक्कः" सदारश्च यन्ममाभ्यागतो गृहम् ।।१८४॥ त्वमिष्टबन्धुरायातो गृहं मेऽध सदारकः ।' संविमागोचितः कोऽन्यः प्रस्तावः स्यान्ममेरचः ॥१८॥ तदत्रावसरे वस्तु तन मे या दीयते । प्रणयिन् प्रणयस्यास्य मा कृथा मझमर्थिनः ॥१८॥ इत्युक्तः प्रेमनिध्नेन चक्रिणा प्रत्युवाच सः । त्वत्प्रसादान्ममास्त्येव सर्व किं प्रार्थ्यमद्य मे ॥१८॥ "साम्नानेनार्पितः स्वेन प्रयुक्तेनेति सादरम् । प्रणयस्य परां भूमिमहमारापि तस्स्वया ॥१८॥
॥१७६।। इस तरह पण्डिताने वनजंघसम्बन्धी अनेक मनोहर बातें कहकर श्रीमतीको सुखी किया, परन्तु वह उसकी प्राप्तिके विषयमें अबतक भी निराकुल नहीं हुई ॥१७॥
___ इधर पण्डिताने श्रीमतीसे जबतक सब समाचार कहे तबतक महाराज वज्रदन्त, विशाल भ्रातृप्रेमको विस्तृत करते हुए आधी दूर तक जाकर वज्रबाहु राजाको ले आये ।।१७८।। राजा वदन्त अपने बहनोई, बहन और भानजेको देखकर परम प्रीतिको प्राप्त हुए सो ठीक ही है क्योंकि इष्टजनोंका दर्शन प्रीति के लिए ही होता है ॥१७९॥ तदनन्तर कुछ देर तक कुशलमंगलकी बातें होती रहीं और फिर चक्रवर्तीकी ओरसे सब पाहुनोंका उचित सत्कार किया गया ॥१८०।। स्वयं चक्रवर्तीके द्वारा किये हुए सत्कारको पाकर राजा वनबाहु बहुत प्रसन्न हुआ। सच है, स्वामीके द्वारा किया हुआ सत्कार सेवकोंकी प्रीतिके लिए ही होता है ।।१८।। इस प्रकार जब सब बन्धु संतोषपूर्वक सुखसे बैठे हुए थे तब चक्रवर्तीने अपने बहनोई राजा वत्रबाहुसे नीचे लिखे हुए वचन कहे ॥१८२॥ यदि आपकी मुझपर असाधारण प्रीति है तो मेरे घरमें जो कुछ वस्तु आपको अच्छी लगती हो वही ले लीजिए ॥१८३॥ आज आप पुत्र और स्त्रीसहित मेरे घर पधारे हैं इसलिए मेरा मन प्रीतिकी अन्तिम अवधिको प्राप्त हो रहा है ॥१८४॥ आप मेरे इष्ट बन्धु हैं और आज पुत्रसहित मेरे घर आये हुए हैं इसलिए देनेके योग्य इससे बढ़कर और ऐसा कौन-सा अवसर मुझे प्राप्त हो सकता है ? ॥१८५।। इसलिए इस अवसरपर ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो मैं आपके लिए न दे सकूँ। हे प्रणयिन् , मुझ प्रार्थीके इस प्रेमको भंग मत कीजिए ।।१८६।। इस प्रकार प्रेमके वशीभूत चक्रवर्तीके वचन सुनकर राजा वज्रबाहुने इस प्रकार उत्तर दिया । हे चक्रिन्, आपके प्रसादसे मेरे यहाँ सब कुछ है, आज मैं आपसे किस वस्तुकी प्रार्थना करूँ ? ॥१८७|आज आपने सम्मानपूर्वक जो मेरे साथ स्वयं सामका प्रयोग किया है-भेंट आदि करके स्नेह प्रकट किया है सो मानो आपने मुझे
१. वज्रजगतः। २. श्रीमती। ३. तत्प्राप्त्य द०, ल०। ४. भगिन्याः । ५. भगिनीपुत्रम् । ६. बन्धुसमूहः । ७. अतिथियोग्याम् । ८. सत्कारविशेषम् । ९. प्रापिताः। १०. मानताम् प०, स०,८०, ल०, ८० । सम्मानम् । ११. -जातं प०, अ०, स०, द०, ल०। १२. अनिर्बन्धा। १३. परमप्रकर्षाम् । १४. सपुत्रः। सतुष्कः म०, ल०। सपुत्रः अ०, ६०, स०। १५. संविभागः त्यागः सम्भावना वा। १६. मम । १७. स्नेहाधीनेन । १८. प्रियवचनेन । १९. प्रापितः ।