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आदिपुराणम्
तु वासवदुर्दान्त पावकी' कविचक्षणौ । दृष्ट्वास्मत्पट्टकं हृष्टा स्वानुमानादवोचताम् ॥ ११२ ॥ "पार्थ" स्फुटं बि जातिस्मृतिमुपेयुषी । व्यकिखद्राजपुत्रीदं स्वपूर्वमवचेष्टितम् ॥ ११३ ॥ इति नागरिकत्वेन प्रवृत्तौ नायकमुबौ । ताववोचं विहस्याहं चिरात् स्यादिदमीदृशम् ॥ ११४॥ हठात् प्रकृतगूढार्थं संप्रश्ने च मया कृते । "जोषमास्तां विलक्ष तौ मूकीभूय ततो गतौ ॥ ११५ ॥ ● श्वशुर्यस्ते युवा वज्रस्तत्रागमत् ततः । दिव्येन वपुषा काम्स्या दीपस्या' चानुपमो भुवि ॥ ११६ ॥ अथ प्रदक्षिणीकृत्य मध्यस्तजिनमन्दिरम् । स्तुत्वा प्रणम्य चाभ्यर्च्य पट्टशालामुपासदत् ॥ १.१७ ॥ निर्वर्ण्य' पट्टकं तत्र श्रीमानिदमवोचत । ज्ञातपूर्वमिवेदं में चरितं प्रकस्थितम् ॥ ११८ ॥ वर्णनातीतमन्त्रेदं" चित्रकर्म बिराजते । " मानोम्मानप्रमायाज्यं निम्नोचतविभागवत् ॥ ११९ ॥ अहो सुनिपुर्ण चित्रकर्मेदं विलसच्छवि । रसभावान्वितं हारि रेखामाधुर्यसंगतम् ॥१२०॥ अनास्मन्द्भवसंबन्धः” पूर्वोऽलेखि सविस्तरम् । "श्रीप्रभाधिपतां साक्षात् पश्यामीवेह मामिकाम् ॥१२१॥ अहो स्त्रीरूपमन्त्रेदं नितरामभिरोचते । स्वयंप्रभाङ्गसंवादि" विचित्राभरणोज्ज्वलम् ॥ १२२ ॥
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समझ सके । इसलिए देखकर ही वापस चले गये थे ॥ १११ ॥ हाँ, वासव और दुर्दान्त, जो झूठ बोलने में बहुत ही चतुर थे, हमारा चित्रपट देखकर बहुत प्रसन्न हुए और फिर अपने अनुमानसे बोले कि हम दोनों चित्रपटका स्पष्ट आशय जानते हैं। किसी राजपुत्रीको जाति-स्मरण हुआ है, इसलिए उसने अपने पूर्वभवकी समस्त चेष्टाएँ लिखी हैं ।। ११२-११३ ।। इस प्रकार कहते-कहते वे बड़ी चतुराईसे बोले कि इस राजपुत्रीके पूर्व जन्मके पति हम ही हैं। मैंने बहुत देर तक हँसकर कहा कि कदाचित् ऐसा हो सकता है ||११४ || अनन्तर जब मैंने उनसे चित्रपटके गूढ अर्थोके विषयमें प्रश्न किये और उन्हें उत्तर देनेके लिए बाध्य किया तब वे चुप रह गये और लज्जित हो चुपचाप वहाँ से चले गये ।। ११५ ॥ तत्पश्चात् तेरे श्वशुरका तरुण पुत्र वज्रजंघ बहाँ आया, जो अपने दिव्य शरीर, कान्ति और तेजके द्वारा समस्त भूतलमें अनुपम था ॥ ११६ ॥ उस भव्यने आकर पहले जिनमन्दिरकी प्रदक्षिणा दी । फिर जिनेन्द्रदेवकी स्तुति कर उन्हें प्रणाम किया, उनकी पूजा की और फिर चित्रशाला में प्रवेश किया ॥ ११७ ॥ | वह श्रीमान् इस चित्रपटको देखकर बोला कि ऐसा मालूम होता है मानो इस चित्रपटमें लिखा हुआ चरित्र मेरा पहलेका जाना हुआ हो । ११८|| इस चित्रपटपर जो यह चित्र चित्रित किया गया है इसकी शोभा वाणीके अगोचर है। यह चित्र लम्बाई चौड़ाई ऊँचाई आदिके ठीक-ठीक प्रमाणसे सहित है तथा इसमें ऊँचे-नीचे सभी प्रदेशोंका विभाग ठीक-ठीक दिखलाया गया है ॥ ११९॥ अहा, यह चित्र बड़ी चतुराईसे भरा हुआ है, इसकी दीप्ति बहुत ही शोभायमान है, यह रस और भावों से सहित है, मनोहर है तथा रेखाओंकी मधुरतासे संगत है ॥ १२०॥ इस चित्रमें मेरे पूर्वभवका सम्बन्ध विस्तार के साथ लिखा गया है। ऐसा जान पड़ता है मानो मैं अपने पूर्वभव में होनेवाले श्रीप्रभ विमानके अधिपति ललितांगदेवके स्वामित्वको साक्षात् देख रहा हूँ || १२१|| अहा, यहाँ यह स्त्रीका रूप अत्यन्त शोभायमान हो रहा है । यह अनेक प्रकारके आभरणोंसे
१. मृषा । २. पट्टे स्थितार्थम् । ३. जामीवः । ४. आत्मानं नायकं ब्रुवात इति । ५. तूष्णीम् । ६. लज्जित । उक्तं च विदग्धचूडामणी - 'विलक्षो विस्मयान्वितः' इत्येतस्य व्याख्यानावसरे 'आत्मनश्चरि सम्यग्ज्ञातेऽन्तर्यस्य जायते । अपत्रपातिमहती स विलक्ष इति स्मृतः ॥' इति । ७. वरः । ८. तेजसा । ९. अवलोक्य । 'निर्वर्णनं तु निध्यानं दर्शनालोकनेक्षणम् । इत्यमरः । १०. पूर्वस्मिन् ज्ञातम् । ११. पटे । १२. ' आयामसंश्रितं मानमिह मानं निगद्यते । नाहसंश्रितमुन्मानं प्रमाणं व्याससंश्रितम् ॥' १३. संबन्धं ल० । १४. पौर्वोऽलेखि म० । १५. श्रीप्रभविमानाधिपतित्वं ललिताङ्गत्वम् । १६. समानम् ।