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आदिपुराणम् कपोलफलके चास्याः 'फलिनीफलसविषि । लिखबालेख्य पत्राणि नाहमत्र निदर्शितः॥१३॥ नूनं स्वयंप्रमाचर्याहस्तनैपुण्यमीहशम् । नान्यस्य स्त्रीजनस्येहक प्रावीण्यं स्यात् कलाविधौ ॥१३५॥ इति प्रतर्कयमेव पर्याकुल इव क्षणम् । शून्यान्तःकरणोऽध्यासीत् किमप्यामीलितेक्षणः ॥१६॥ उदश्रुलोचनश्चायं दशामस्या मिवोषयन् । दिव्या संधारितोऽभ्येत्य तदा सख्येव मूर्च्छवा ॥१३॥ तदवस्थं तमालोक्य नाहमेवोन्मनायिता । चित्रस्थान्यपि रूपाणि प्रायान्प्रायोऽन्तरार्द्रताम् ॥१३॥ प्रत्याश्वासमथानीत: सोपायं परिचारिमिः । स्वदर्पितमनोवृतिः सोऽदर्शवन्म यीदिशः ॥१३॥ अचिराल्लब्धसंज्ञश्च पृष्टवानिति माममौ । मड़े केनेदमालेल्ये' लिखितं नः पुरोहितम् ॥१४॥ प्रत्युक्तश्च मयेत्यस्ति स्त्रीसर्ग स्यैकनायिका । दुहिता मातुलमन्यास्त श्रीमतीति पतिंवरा ॥१४॥ तां विद्धि मदनस्येव पताकामुज्ज्वलांशुकाम् । सोसृष्टेरिव निर्माण, देखा माधुर्यशालिनीम् ॥१२॥ समग्रयौवनारम्भसूत्रपातैरिवायतैः । रष्टिपातैः "स्वभूस्तस्याः श्लाघते शरकौशलम् ॥१४॥
तक्ष्मीकराग्रसंसक्तलीलाम्बुजजिगीषया । तद्वक्त्रेन्दुः सदा भाति नूनं दन्तांशुपेशलः ॥१४४॥ नहीं दिखाया गया है ।।१३३।। मैंने इसके प्रियंगु फलके समान कान्तिमान् कपोलफलकपर कितनी ही बार पत्र-रचना की थी. परन्तु वह विषय भी इस चित्र में नहीं दिखाया है॥१३॥ निश्चयसे यह हाथकी ऐसी चतुराई स्वयंप्रभाके जीवको ही है क्योंकि चित्रकलाके विषयमें ऐसी चतुराई अन्य किसी स्रोके नहीं हो सकती ।।१३५।। इस प्रकार तर्क-वितर्क करता हुआ वह राजकुमार व्याकुलकी तरह शून्यहृदय और निमीलितनयन होकर क्षण-भर कुछ सोचता रहा ।।१३६।। उस समय उसकी आँखोंसे आँसू झर रहे थे, वह अन्तकी मरण अवस्थाको प्राप्त हुआ ही चाहता था कि देव योगसे उसी समय मूच्छाने सखीके समान आकर उसे पकड़ लिया, अर्थात् वह मूच्छित हो गया ॥१३७॥ उसकी वैसी अवस्था देखकर केवल मुझे ही विषाद नहीं हुआ था; किन्तु चित्रमें स्थित मूर्तियोंका अन्तःकरण भी आई हो गया था ॥१३८॥ अनन्तर परिचारकोंने उसे अनेक उपायोंसे सचेत किया किन्तु उसकी चित्तवृत्ति तेरी ही ओर लगी रही। उसे समस्त दिशाएँ ऐसी दिखती थीं मानो तुझसे ही व्याप्त हों ॥१३९।। थोड़ी ही देर बाद जब वह सचेत हुआ तो मुझसे इस प्रकार पूछने लगा कि हे भद्रे, इस चित्रमें मेरे पूर्वभवकी ये चेष्टाएँ किसने लिखी हैं ? ॥१४०॥ मैंने उत्तर दिया कि तुम्हारी मामीकी एक श्रीमती नामकी पुत्री है, वह स्त्रियोंकी सृष्टिको एक मात्र मुख्य नायिका है-वह स्त्रियों में सबसे अधिक सुन्दर है और पति-वरण करनेके योग्य अवस्थामें विद्यमान है-अविवाहित है ॥१४१॥ हे राजकुमार, तुम उसे उज्ज्वल वस्त्रसे शोभायमान कामदेवकी पताका ही समझो, अथवा स्त्रीसृष्टिकी माधुर्यसे शोभायमान अन्तिम निर्माणरेखा ही जानो अर्थात् स्त्रियोंमें इससे बढ़कर सुन्दर स्त्रियोंकी रचना नहीं हो सकती ॥१४२॥ उसके लम्बायमान कटाक्ष क्या हैं मानो पूर्ण यौवनके प्रारम्भको सूचित करनेवाले सूत्रपात ही हैं। उसके ऐसे कटाक्षोंसे ही कामदेव अपने बाणोंके कौशलकी प्रशंसा करता है अर्थात् उसके लम्बायमान कटाक्षोंको देखकर मालूम होता है कि उसके शरीर में पूर्ण यौवनका प्रारम्भ हो गया है तथा कामदेव जो अपने बों की प्रशंसा किया करता है सो उसके कटाक्षोंके भरोसे ही किया करता है ॥१४३।। उसका मुखरूपी चन्द्रमा सदा दाताका उज्ज्वल किरणास शोभाय
१. फलिनी प्रियड़गुः। २. मकरिकापत्राणि । ३. चिन्तयति स्म। ४. ईषत् । ५. मरणावस्थाम् । 'सुदिदृक्षायतोच्छवासा ज्वरदाहाशनारुचीः। सम्मोन्मादमोहान्ताः कान्तामाप्नोत्यनाप्य ना॥। ६. दुर्मन इवाचरिता। ७. अगच्छन् । ८. पुनरुज्जीवनम् । ९. त्वया निवृत्ताः। १०. लब्धचैतन्यः । ११. पटे १२. पर्वभवचेष्टितम् । परेहितम् म०, ट०।१३. स्त्रोमष्टेः । १४. कन्यका । १५. उज्ज्वलवस्त्राम् । उज्ज्वलकान्ति च । १६. जीवरेखाम् । १७. स्मरः ।