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आदिपुराणम् नौ राजसम्मतौ वादकन्याकाण्डपण्डितो' । विद्यासंवादगोष्ठीषु निकषोपलतां गतौ ॥६५॥ कदाचिव नरेन्द्रेण समं गत्वा मुनीश्वरम् । मतिसागरमद्राष्टाममृतस्रवणर्द्धिकम् ॥६६॥ नृपप्रश्नवशात्तस्मिन् जीवतत्वनिरूपणम् । कुर्वाणे चोच चुश्रुत्वात् इत्यता प्रसी तौ ॥६॥ विनोपलब्ध्या सद्भावं प्रतीमः कथमात्मनः। स नास्त्यत: कुतस्तस्य प्रेत्यभावफलादिकम् ॥६॥ तदुपालम्ममित्युच्चैराकर्ण्य मुनिपुङ्गवः । वचनं तत्प्रबोधीदं धीरधीः प्रत्यभाषत ॥१९॥ यदुक्तं जीवनास्तित्वेऽनुपलब्धिः प्रसाधनम् । तदसदेतुदोषाणां भूयसां तत्र संमवात् ॥७॥ छमस्थानुपलब्धिभ्यः सूक्ष्मादिषु' कुतो गतिः । अमावस्य ततो हेतुः साध्यं व्यभिचरत्ययम् ॥७॥ भवता किं तु दृष्टोऽसौ स्वस्पितुर्यः पितामहः । तथापि सोऽस्ति चेदस्तु जीवस्याप्येवमस्तिता ॥७२॥ अभावेऽपि विवन्धणां जीवस्यानुपलब्धितः । स नास्तीति मृषास्तित्वात् सौम्यस्यह विवणः ॥७३॥
जीवशब्दामिधेयस्य वचसः प्रत्ययस्य च । यथास्तिस्वं तथा बाह्योऽप्यर्थस्तस्यास्तु काऽशमा ॥७॥ पारगामी, सभाको प्रसन्न करने में तत्पर, राजमान्य, वादविवादरूपी खुजलीको नष्ट करनेके लिए उत्तम वैद्य तथा विद्वानोंकी गोष्टीमें यथार्थ ज्ञानकी परीक्षाके लिए कसौटीके समान थे ॥६४-६५।। किसी दिन उन दोनों विद्वानोंने राजाके साथ अमृतस्राविणो ऋद्धिके धारक मतिसागर नामक मुनिराजके दर्शन किये ॥६६॥ राजाके मुनिराजसे जीवतत्त्वका स्वरूप पूछा, उत्तरमें वे मुनिराज जीवतत्त्वका निरूपण करने लगे, उसी समय प्रश्न करने में चतुर होनेके कारण वे दोनों विद्वान् प्रहसित और विकसित हठपूर्वक बोले कि उपलब्धिके बिना हम जीवतत्त्वपर विश्वास कैसे करें ? जब कि जीव ही नहीं है तब मरनेके बाद होनेवाला परलोक और पुण्य-पाप आदिका फल कैसे हो सकता है ? ॥६७६८॥ वे धीर-वीर मुनिराज उन विद्वानोंके ऐसे उपालम्भरूप वचन सुनकर उन्हें समझानेवाले नीचे लिखे वचन कहने लगे ॥६९।।
आप लोगोंने जीवका अभाव सिद्ध करनेके लिए जो अनुपलब्धि हेतु दिया है (जीव नहीं है क्योंकि वह अनुपलब्ध है) वह असत् हेतु है क्योंकि उसमें हेतुसम्बन्धी अनेक दोष पाये जाते हैं ॥७०।। उपलब्धि पदार्थोंके सद्भावका कारण नहीं हो सकती क्योंकि अल्प ज्ञानियोंको परमाणु आदि सूक्ष्म, राम, रावण आदि अन्तरित तथा मेरु आदि दरवर्ती पदार्थोंकी भी उपलब्धि नहीं होती परन्तु इन सबका सद्भाव माना जाता है इसलिए जीवका अभाव सिद्ध करनेके लिए आपने जो हेतु दिया है वह व्यभिचारी है ।।७।। इसके सिवाय एक बात हम आपसे पूछते हैं कि आपने अपने पिताके पितामहको देखा है या नहीं ? यदि नहीं देखा है, तो वे थे या नहीं ? यदि नहीं थे तो आप कहाँसे उत्पन्न हुए ? और थे, तो जब आपने उन्हें देखा ही नहीं है-आपको उनकी उपलब्धि हुई ही नहीं; तब उसका सद्भाव कैसे माना जा सकता है ? यदि उनका सद्भाव मानते हों तो उन्हींकी भाँति जीवका भी सद्भाव मानना चाहिए ॥७२।। यदि यह मान भी लिया जाये कि जीवका अभाव है; तो अनुपलब्धि होनेसे ही उसका अभाव सिद्ध नहीं हो सकता; क्योंकि ऐसे कितने ही सूक्ष्म पदार्थ हैं जिनका अस्तित्व तो है परन्तु उपलब्धि नहीं होती ।।७।। जैसे जीव अर्थको कहनेवाले 'जीव' शब्द और उसके ज्ञानका जीवज्ञान-सद्भाव माना जाता है, उसी प्रकार उसके वाच्यभूत बाह्य-जीव अथेके भी सद्भावको मानने में क्या हानि है ? क्योंकि जब 'जीव' पदार्थ ही नहीं होता तो उसके वाचक शब्द कहाँसे आते और उनके सुननेसे वैसा ज्ञान भी कैसे होता ? ॥७४||
१. वादस्य कण्डूया वादकण्डूया तस्या काण्डः काण्डनं तत्र पण्डितो निपुणौ । २. साक्षेपप्रश्नप्रतीतत्वात। •, ३. पञ्चुत्वात् अ०,५०,म०,२०,ल०। ४. बलात्कारेण । 'प्रसह्य तु हठार्थकम्' इत्यभिधानात् । ५. दर्शनेम । ६. अस्तित्वम् । ७. विश्वासं कुर्मः । ८.प्रेत्य उत्तरभवः । ९. तज्जीवदूषणम् । १०.-नुपलब्धिश्चेत् ब०, ५०, ६०, ल.। ११. परमाणुपिक्षाचादिषु । १२. साधनम् । १३. शरीरादीनाम् । विवक्षणां प०,६०, स०। १४. बन्धकस्य । १५. शामस्व।