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सप्तमं पर्व
१४३ ततोऽस्मद्गुरुरंवासीत् तवाप्यभ्यर्हितो गुरुः । द्वाविंशतिं गुरुस्नेहाललिताङ्गानथार्चयम् ॥५४॥ तेष्वन्स्यो भवतीमर्ता प्राग्भवेऽभून्महाबलः । स्वयंबुद्धोपदेशेन सोऽन्वभूदामरी श्रियम् ॥५५॥ ललिताङ्गश्च्युतः स्वर्गान्मर्त्यभावे स्थितोऽद्य नः । प्रत्यासन्नतमो बन्धुः स ते भर्ता भविष्यति ॥५६॥ तवाभिज्ञान मन्यच्च वक्ष्ये पमानने शृणु । ब्रह्मेन्द्रलान्तवेशाभ्यां भक्त्या पृष्टस्तदेत्यहम् ॥५७॥ युगन्धरजिनेन्द्रस्य तीर्थेऽलप्स्वहि दर्शनम् । ततस्तच्चरितं कृत्स्नं संबुभुत्सावहेऽधुना ॥५॥ ततोऽवोचमहं ताभ्यामिति तच्चरितं तदा । दम्पतिभ्यां समेताभ्यां युवाभ्यां च यदृच्छया ॥५९॥ जम्बूद्वीपस्य पूर्वस्मिन् विदेहे वस्सकाहये। विषये भोगभूदेश्ये सीतादक्षिणदिग्गते ॥६०॥ सुसीमानगरे नित्यं वास्तव्यौ ज्ञानवित्तको । जाती प्रहसितास्यश्च तथा विकसिताह्वयः ॥६१॥ तत्पुराधिपतेः श्रीमदजितंजयभूभृतः। नाम्नामृतमतिर्मन्त्री सत्यभामा प्रियास्य च ॥३२॥ तयोः प्रहसिताख्योऽयमभूत् सूनुर्विचक्षणः । सखा विकसितो ऽस्यासौ सदेमौ सहचारिणौ ॥६३॥
जात्यों हेतुतदामासच्छलजात्यादिकोविदौ"।"तीर्णब्याकरणाम्भोधी समारजनतत्परौ ॥६४॥ व्रतदानकी अपेक्षा तेरे भी पूज्य गुरु हुए। मेरी माताके जीव ललितांगने मुझे उपदेश दिया था इसलिए मैंने गुरुके स्नेहसे अपने समयमें होनेवाले बाईस ललितांग देवोंकी पूजा की थी ॥५१-५४॥ [ उन बाईस ललितांगोंमें-से पहला ललितांग तो मेरी माता मनोहराका जीव था जो कि क्रमसे जन्मान्तरमें पिहितास्रव हुआ ] और अन्तका ललितांग तेरा पति था जो कि पूर्वभवमें महाबल था तथा स्वयम्बुद्ध मन्त्रीके उपदेशसे देवोंको विभूतिका अनुभव करनेवाला हुआ था ॥५५॥ वह बाईसवाँ ललितांग स्वर्गसे च्युत होकर इस समय मनुष्यलोकमें स्थित है। वह हमारा अत्यन्त निकटसम्बन्धी है। हे पुत्रि, वही तेरा पति होगा ॥५६॥ हे कमलानने, मैं उस विषयका परिचय करानेवाली एक कथा और कहता हूँ उसे भी सुन । जब मैं अच्युत स्वर्गका इन्द्र था तब एक बार ब्रह्मन्द्र और लान्तव स्वर्गके इन्द्रोंते भक्तिपूर्वक मुझसे पूछा था कि हम दोनोंने युगन्धर तीर्थकरके तीर्थमें सम्यग्दर्शन प्राप्त किया है इसलिए इस समय उनका पूर्ण चरित्र जानना चाहते हैं ।।५७-५८। उस समय मैंने उन दोनों इन्द्रों तथा अपनी इच्छासे साथ-साथ आये हुए तुम दोनों दम्पतियों (ललितांग और स्वयंप्रभा) के लिए युगन्धर स्वामीका चरित्र इस प्रकार कहा था ।।५९।।
जम्ब द्वीपके पूर्व विदेह क्षेत्र में एक वत्सकावती देश है जो कि भोगभूमिके समान है। इसी देशमें सोता नदीकी दक्षिण दिशाकी ओर एक सुसीमा नामका नगर है। उसमें किसीसमय प्रहसित और विकसित नामके दो विद्वान रहते थे, वे दोनों ज्ञानरूपी धनसे सहित अत्यन्त बुद्धिमान थे॥६०-६१।।उस नगरके अधिपति श्रीमान् अजितंजय राजा थे। उनके मन्त्रीका नाम
मितमति और अमितमतिको खोका नाम सत्यभामा था। प्रहसित, इन दोनोंका ही बुद्धिमान पुत्र था और विकसित इसका मित्र था। ये दोनों सदा साथ-साथ रहते थे ॥६२-६३।। ये दोनों विद्वान , हेतु हेत्वाभास, छल, जाति आदि सब विषयोंके पण्डित, व्याकरणरूपी समुद्रके
१. पूज्यः । २. मातृस्नेहात् । ३. त्वत्पुरुषः । ४. चिह्नम् । ५. जिनेशस्य म०, ल० । ६. लब्धवन्तो। ७. सम्यग्दर्शनम् । ८. सम्यग्बोटुमिच्छामः। ९. समागताभ्याम् । १०. भोगभूमिसदृशे । 'ईषदसमाप्ते कल्पप देश्यप्रदेशीयर' । ११. नित्यवास्तव्यो ६०, ट। सवा निवसन्तो। १२. नाम्नामितमति-अ०, ८०, ल०। १३. विकसितास्योऽसौ म०,ल०।१४. सदा तो प०। सदोमो द०।१५. जन्मना जननादारभ्य इत्यर्थः । जाती ब., १०, स०,८०, ल०। १६. जात्येति वचनेन परोपदेशमन्तरेणैव । हेतुतयाभासच्छलवात्यादिकोषिदी साधनसाधनाण्ठलजातिनिग्रहप्रवीणो। "कमप्यर्थमभिप्रेत्य प्रवृत्ते बचने पुनः । अनिष्टमर्थमारोप्य तनिषेष: पलं मतम् ।" "प्रवृत्ते स्थापनाहेतो दूषणासक्तमुत्तरम् । जातिमाहुरचान्ये तु सोऽव्यावासका ।" "अखण्डिताहंकृतिनां पराहकारखण्डनम् । निग्रहस्तनिमित्तस्य निग्रहस्थानतोच्यते"। १७. सरितः।