________________
सप्तमं पर्व
1
प्रीतिवर्द्धनमारोप्य विमानमतिभास्वरम् । नीत्वास्मस्कल्पमेवास्य कृतवानस्मि सक्रियाम् ||२६|| स नो' मातृचरस्तस्मिन् कल्पेऽनस्पसुखोदये । भोगाननुभवन् दिव्यानसकृच्च मयाचितः ||२७|| ललिताङ्गस्ततश्च्युत्वा जम्बूद्वीपस्य पूर्वके । विदेहे मङ्गलावत्यां रौप्यस्यारुदक्तटे ||२८|| गन्धर्वपुरनाथस्य वासवस्य खगेशिनः । सूनुरासीत् प्रभावत्यां देव्यां नाम्ना महीधरः || २९ ॥ महीधरे निजं राज्यभारं निक्षिप्य वासवः । निकटेऽरिक्षयाख्यस्य तप्त्वा मुक्तावलीं तपः ||३०|| निर्वाणमगमत् पद्मावत्याय च प्रभावती । समाश्रित्य तपस्तप्त्वा परं रत्नावलीमसी ॥३१॥ अच्युतं कल्पमासाद्य प्रतीन्द्रपदभागभूत् । महीधरोऽपि संसिद्धविद्योऽभूदद्भुतोदयः ||३२|| कदाचिदथ गत्वा पुष्करार्द्धस्य पश्चिने । मागे पूर्वविदेहे तं विषयं वत्सकावतीम् ||३३|| तत्र प्रभाकरीपुर्या विनयन्धरयोगिनः । निर्वाणपूजां निष्ठाप्य महामेरुमथागमम् ||३४|| तत्र नन्दनपूर्वाश चैत्यालयमुपाश्रितम् । महीधरं समालोक्य विद्यापूजोद्यतं तदा ||३५|| प्रत्यबूबुध मित्युच्चैः अहो खेन्द्र महीधरम् । विद्धि मामच्युताधीशं ललिताङ्गस्वमप्यसौ ॥३६॥ स्वय्यसाधारणी प्रीतिः ममास्ति जननीचरे । तद्भद्र विषयासङ्गाद् दुरस्ताद् विरमाधुना ||३७|| इत्युक्तमात्र एवासौ निर्विण्णः कामभोगतः । महीकम्पे सुते ज्येष्ठे राज्यभारं स्वमर्पयन् ॥३८॥ बहुभिः खेचरैः सार्द्धं 'जगनन्दन शिष्यताम् । प्रपद्य कनकावल्या प्राणतेन्द्रोऽभवद् विभुः ॥ ३९ ॥ विंशत्यब्धिस्थितिस्तत्र भोगाग्निविंश्य निश्च्युतः । धातकीखण्डपूर्वाशापश्चिमोरुविदेहगे ||४०||
७
१४१
स्नेहसे ललितांगदेवके समीप जाकर उसकी पूजा की ।। २५ ।। मैं उसे अत्यन्त चमकीले प्रीतिवर्धन नामके विमान में बैठाकर अपने स्वर्ग (सोलहवाँ स्वर्ग) ले गया और वहाँ उसका मैंने बहुत ही सत्कार किया ।। २६ ।। इस प्रकार मेरी माताका जीव ललितांग, अत्यन्त सुख संयुक्त स्वर्ग में दिव्य भोगोंको भोगता हुआ जबतक विद्यमान रहा तबतक मैंने कई बार उसका सत्कार किया ||२७|| तदनन्तर ललितांगदेव वहाँसे चयकर जम्बूद्वीपके पूर्वविदेह क्षेत्रमें मंगलावती देशके विजयार्ध पर्वतकी उत्तर श्रेणीमें गन्धर्वपुरके राजा वासव विद्याधर के घर उसकी प्रभावती नामकी महादेवीसे महीधर नामका पुत्र हुआ ।। २८-२९।। राजा वासव अपना सब राज्यभार महीधर पुत्रके लिए सौंपकर तथा अरिंजय नामक मुनिराज के समीप मुक्तावली तप तपकर निर्वाणको प्राप्त हुए। रानी प्रभावती पद्मावती आर्यिकाके समीप दीक्षित हो उत्कृष्ट रत्नावली तप तपकर अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र हुई और तबतक इधर महीधर भी अनेक विद्याओंको सिद्ध कर आश्चर्यकारी विभवसे सम्पन्न हो गया || ३०-३२ ।। तदनन्तर किसी दिन मैं पुष्करार्ध द्वीपके पश्चिम भागके पूर्व विदेहसम्बन्धी वत्सकावती देशमें गया वहाँ प्रभाकरी नगरीमें श्री विनयन्धर मुनिराजकी निर्वाण -कल्याणकी पूजा की और पूजा समाप्त कर मेरु पर्वतपर गया ! वहाँ उस समय नन्दनवनके पूर्व दिशासम्बन्धी चैत्यालय में स्थित राजा महीधरको (ललितांगका जीव) विद्याओंकी पूजा करनेके लिए उद्यत देखकर मैंने उसे उच्चस्वर में इस प्रकार समझाया - अहो भद्र, जानते हो, मैं अच्युत स्वर्गका इन्द्र हूँ और तू ललितांग है । तू मेरी माताका जीव है इसलिए तुझपर मेरा असाधारण प्रेम है। हे भद्र, दुःख देनेवाले इन विषयोंकी आसक्तिसे अब विरक्त हो ॥३३-३७॥ इस प्रकार मैंने उससे कहा ही था कि वह विषयभोगोंसे विरक्त हो गया और महीकम्प नामक ज्येष्ठ पुत्रके लिए राज्यभार सौंपकर अनेक विद्याधरोंके साथ जगन्नन्दन मुनिका शिष्य हो गया, तथा कनकावली तप तपकर उसके प्रभाव से प्राणत स्वर्ग में बीस सागर की स्थितिका धारक इन्द्र हुआ। वहाँ वह अनेक भोगोंको भोगकर धातकीखण्ड द्वीपके पूर्व दिशासम्बन्धी पश्चिमविदेह क्षेत्रमें स्थित गन्धिलदेशके
१. स मे मा स०, प० । २. उत्तर श्रेण्याम् । ३. बलिं तपः प० । ४. प्रतिबोधयामि स्म । भद्र ल० । ६. विषयासक्तेः । ७. निर्वेगपरः । ८. समर्पयत् अ०, प०, ६०, स० । समर्पयन् ल० । ९. मुनिः ।