________________
१४२
आदिपुराणम् गन्धिले विषयेऽयोध्यानगरे जयवर्मणः । सुप्रमायाश्च पुत्रोऽभूद अजितंजय इत्यसौ ॥४॥ जयवर्माथ निक्षिप्य स्वं राज्यमजितंजये । पाश्वऽमिनन्दनस्याधात् तपः साचाम्लवर्द्धनम् ॥४२॥ कर्मबन्धननिर्मुक्तो लेभेऽसौ परमं पदम् । यत्रास्यन्तिकमक्षय्यमव्यावाधं परं सुखम् ॥४३॥ सुप्रमा च समासाद्य गणिनीं तां सुदर्शनाम् । रत्नावलीमुपोष्याभूद च्युतानुदिशाधिपः ॥४४॥ ततोऽजितंजयश्चक्री भूत्वा मक्स्यामिनन्दनम् । विवन्दिषुर्जिनं जातः पिहिताम्रवनाममाक् ॥४५॥ तदा पापानवद्वारपिधानान्नाम ताशम् । लम्वासौ सुचिरं कालं साम्राज्यसुखमन्वभूत् ।।४६॥ प्रबोधितश्च सोऽन्येचः मयैव स्नेहनिर्मरम् । मो मग्य मा भवान साक्षीद विषयेष्वपहारिषु ॥४७॥ पश्य निर्विषयां तृप्तिमुशन्स्यास्यन्तिकी बुधाः । न सास्ति विषयैर्भुतः दिव्यमानुषगोचरैः ॥४८॥ भूयो भुक्तेषु भोगेषु भवेन्नैव रसान्तरम् । स एव चेद् रसः पूर्वः किं तैश्चर्वितचर्वणः ॥४९।। मोगैरेन्द्रन यस्तृप्तः स किं तय॑ति मर्त्यजैः । अनाशितम्भवैरेमिस्तदलं भङ्गुरैः सुखैः ॥५०॥ इत्यस्मद्वचनाज्जातवैराग्यः पिहितास्रवः । सहस्त्रगुणविंशत्या समं पार्थिवकुअरैः ॥५॥ मन्दरस्थविरस्यान्ते दीक्षामादाय सोऽवधिम् । चारणदिच संप्राप्य तिलकान्तेऽम्बरे गिरौ ॥५२॥ तपो जिनगुणद्धिं च श्रुतज्ञानविधि च ते । तदादावाददानाय स्वर्गाप्रसुखसाधनम् ॥५३॥
अयोध्या नामक नगरमें जयवर्मा राजाके घर उसको सुप्रभा रानीसे अजितंजय नामक पुत्र हुआ॥३८-४१।। कुछ समय बाद राजा जयवर्माने अपना समस्त राज्य अजितंजय पुत्रके लिए सौंपकर अभिनन्दन मुनिराजके समीप दीक्षा ले ली और आचाम्लवर्धन तप तपकर कर्मबन्धनसे रहित हो मोक्षरूप उत्कृष्ट पदको प्राप्त कर लिया। उस मोक्षमें आत्यन्तिक, अविनाशी
व्याबाध उत्कृष्ट सुख प्राप्त होता है ॥४२-४३॥ रानी सुप्रभा भीसुदर्शना नामक्री गणिनीके पास जाकर तथा रत्नावली व्रतके उपवास कर अच्युत स्वर्गके अनुदिश विमानमें देव हुई ॥४४॥ तदनन्तर अजितंजय राजा चक्रवर्ती होकर किसी दिन भक्तिपूर्वक अभिनन्दन स्वामीकी वन्दनाके लिए गया । वन्दना करते समय उसके पापास्रवके द्वार रुक गये थे इसलिए उसका पिहितास्रव नाम पड़ गया। 'पिहितास्रव' इस सार्थक नामको पाकर वह सुदीर्घ काल तक राज्यसुखका अनुभव करता रहा ।।४५-४६।। किसी दिन स्नेहपूर्वक मैंने उसे इस प्रकार समझाया-हे भव्य, त इन नष्ट हो जानेवाले विषयों में आसक्त मत हो। देख, पण्डित जन उस तृप्तिको ही सुख कहते हैं जो विषयोंसे उत्पन्न न हुई हो तथा अन्तसे रहित हो। वह तृप्ति मनुष्य तथा देवोंके उत्तमोत्तम विषय भोगनेपर भी नहीं हो सकती। ये भोग बार-बार भोगे जा चुके हैं, इनमें कुछ भी रस नहीं बदलता । जब इनमें वही पहलेका रस है तब फिर चर्वणं किये हुए का पुनः चर्वण करने में क्या लाभ है ? जो इन्द्रसम्बन्धी भोगोंसे तृप्त नहीं हुआ वह क्या मनुष्योंके भोगोंसे तृप्त हो सकेगा ? इसलिए तृप्ति नहीं करनेवाले इन विनाशीक सुखोंसे बाज आओ. इन्हें छोडो॥४७५०|| इस प्रकार मेरे वचनोंसे जिसे वैराग्य उत्पन्न हो गया है ऐसे पिहितास्रव राजाने बीस हजार बड़े-बड़े राजाओंके साथ मन्दिरस्थविर नामक मुनिराजके समीप दीक्षा लेकर अवधिज्ञान तथा चारण ऋद्धि प्राप्त की। उन्हीं पिहितास्रव मुनिराजने अम्बरतिलक नामक पर्वतपर पूर्वभवमें तुम्हें स्वर्गके श्रेष्ठ सुख देनेवाले जिनगुण सम्पत्ति और श्रुतज्ञान सम्पत्ति नामके व्रत दिये थे । इस प्रकार हे पुत्रि, जो पिहितास्रव पहले मेरे गुरु थे-माताके जीव थे वही पिहिताम्रव
१.-यसाह्वयः प०, १०, द., स., ल० । २. तपस्या चाम्ल अ०, स०, म०, ल० । तपश्चाचाम्लद०। ३. अच्युतकल्पेऽनुदिशविमानाधीशः । ४. मयैवं अ०प०, द०, ल०। ५. त्वं संगं मा गाः 'सज संगे'
इति धातुः । भवच्छब्दप्रयोगे प्रथमपुरुष एव भवति । -न् काङ्क्षीत् प०, ६०, स०। ६. -नषु अ०, ५०, . द०, स०, ल० । ७. तृप्तिमेष्यति । ८. अतृप्तिकरैः। अनाशितभवः अ०,५०, द०, स०, ल० । ९. तिलका
म्बरे ब०।१०. आदत्त इत्याददाना तस्यै ।