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आदिपुराणम्
विषये मङ्गलवत्यां नगरे रत्नसञ्चयं । श्रीधरस्य महीभर्तुः तनयाँ बलकेशव ॥ १४॥ 'मनोहरातद्रमयोः श्रीवर्मा च विभीषणः । ततो राज्यपदं प्राप्य दीर्घ तत्रारमावहे [हि ] ॥ १५ ॥ पिता तु मयि निक्षिप्तराज्यभारः सुधर्मतः । दीक्षिस्वोपोष्य सिद्धोऽम् उपवासविधीन बहून् ॥ १६॥ मनोहरा मयि स्नेहात् स्थितागारे शुचिव्रता । सुधर्मगुरुनिर्दिष्टमाचरन्ती चिरं तपः ॥ १७ ॥ उपोष्य विधिवत्कर्मक्षपणं विधिमुत्तमम् । जीवितान्ते समाराध्य ललिताङ्गसुरोऽभवत् ॥५८॥ ललिताङ्गस्ततोऽसौ मां विभीषणवियोगतः । शुचमापनमासाद्य सोपायं प्रत्यबोधयत् ॥ १९ ॥ अङ्ग पुत्र स्वरं मागाः शुचमशो यथा जनः । जननादिभियो वइयं भावुका' विद्धि संसृता ॥२०॥ इति मातृचरस्यास्य ललिताङ्गस्य बोधनात् । शुचमुत्सृज्य धर्मेकरसोऽभूवं प्रसद्मधीः ||२||-- ततो युगन्धरस्यान्ते दीक्षां जैनेश्वरीमहम् । नृपैर्दशसहस्रार्द्धमितैः सार्द्धमुपादिषि ||२२|| यथाविधि तपस्तप्स्वा सिंहनिष्कीडितं तपः । सुदुश्वरं महोदक्कं सर्वतोभद्रमप्यदः ||२३|| त्रिज्ञानविमलालोकः कालान्ते 'प्रापमिन्द्रताम् । कल्पेऽच्युते ह्यनल्प द्वाविंशत्यब्धिजीवितः ॥ २४ ॥ दिव्याननुभवन् भोगान् तत्र कल्पे महाद्युतौ । गत्वा च जननीस्नेहात् ललिताङ्गमपूजयम् ||२५||
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हम दोनों पुष्कर नामक द्वीपमें पूर्वमेरुसम्बन्धी पूर्वविदेह क्षेत्र में मंगलावती देशके रत्नसंचय नगर में श्रीधर राजाके पुत्र हुए। मैं बलभद्र हुआ और जयकीर्तिका जीव नारायण हुआ । मेरा जन्म श्रीधर महाराजकी मनोहरा नामकी रानीसे हुआ था और श्रीवर्मा मेरा नाम था तथा जयकीर्तिका जन्म उसी राजाकी दूसरी रानी मनोरमासे हुआ था और उसका नाम विभीषण था । हम दोनों भाई राज्य पाकर वहाँ दीर्घकाल तक क्रीड़ा करते रहे ।। १३-१५।। हमारे पिता श्रीधर महाराजने मुझे राज्यभार सौंपकर सुधर्माचार्यसे दीक्षा ले ली और अनेक प्रकार उपवास करके सिद्ध पद प्राप्त कर लिया || १६|| मेरी माता मनोहरा मुझपर बहुत स्नेह रखती थी इसलिए पवित्र व्रतोंका पालन करती हुई और सुधर्माचार्यके द्वारा बताये हुए तपोंका आचरण करती हुई वह चिरकाल तक घरमें ही रही ||१७| उसने विधिपूर्वक * कर्मक्षपण नामक व्रत के उपवास किये थे और आयुके अन्त में समाधिपूर्वक शरीर छोड़ा था जिससे मरकर स्वर्ग में ललितांगदेव | हुई ||१८|| तदनन्तर कुछ समय बाद मेरे भाई विभीषणकी मृत्यु हो गयी और उसके वियोगसे मैं जब बहुत शोक कर रहा था तब ललितांगदेवने आकर अनेक उपायोंसे मुझे समझाया था ||१९|| कि हे पुत्र, तू अज्ञानी पुरुषके समान शोक मत कर और यह निश्चय समझ
इस संसार में जन्म-मरण आदिके भय अवश्य ही हुआ करते हैं ।। २०।। इस प्रकार जो पहले मेरी माता थी उस ललितांगदेव के समझानेसे मैंने शोक छोड़ा और प्रसन्नचित्त होकर धर्म में मन लगाया ||२१|| तत्पश्चात् मैंने श्री युगन्धर मुनिके समीप पाँच हजार राजाओंके साथ जिनदीक्षा ग्रहण की ||२२|| और अत्यन्त कठिन, किन्तु उत्तम फल देनेवाले सिंहनिष्कीडित तथा सर्वतोभद्र नामक तपको विधिपूर्वक तपकर मति श्रुत अवधिज्ञानरूपी निर्मल प्रकाशको प्राप्त किया। फिर आयुके अन्त में मरकर अनल्प ऋद्धियोंसे युक्त अच्युत नामक सोलहवें स्वर्ग में इन्द्र पदवी प्राप्त की। वहाँ मेरी आयु बाईस सागर प्रमाण थी ||२३-२४॥ अत्यन्त कान्तिमान् उस अच्युत स्वर्ग में मैं दिव्य भोगोंको भोगता रहा। किसी दिन मैंने माताके
१. मनोहरामनोहरयोः श्रीधरस्य भार्ययोः । २. तत्रारमावहि ब०, प०, अ०, द०, म०, स०, ल० । त्वकं द०, स०, प० । ३. नियमेन भवितुं शीलं यासां ताः । ४. भीलुका म० । ५. रसः अनुरागः । ६. ज्ञान-१० । ७. - कल्यान्ते ल० । ८. अगमम् । - कर्मक्षपण व्रतमें १४८ उपवास करने पड़ते हैं जिनका क्रम इस प्रकार है । सात चतुर्थी, तीन सप्तमी, छतीस नवमी, एक दशमी, सोलह एकादशी और पचासी द्वादशी । कर्मोंकी १४८ प्रकृतियोंके नाशको उद्देश्य कर इस व्रत में १४८ उपवास किये जाते हैं इसलिए इसका 'कर्मक्षपण' नाम हैं । + यह ललिताङ्ग स्वयंप्रभा ( श्रीमती.) के पति ललितांगदेव से भिन्न था।