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आदिपुराणम् आक्रामन् वनवेदिकान्तरगतस्तां वैजयादी तटी
मुल्लल्याधिवर्धू तरणतरलां गङ्गां च सिन्धुं 'धुनीम् । 'जिरवाशाः कुलभूभृमतिमपि न्यत्कृस्य चक्राहितां
लेभेऽसौ जिनशासनार्पितमतिः श्रीवदन्तः श्रियम् ॥२०॥ इत्या भगवजिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे
ललिताङ्गस्वर्गच्यवनवर्णनं नाम षष्ठं पर्व ॥६॥
पुण्यके फलसे प्राप्त हुई पृथिवीका चिरकाल तक पालन करता रहा।।२०७॥ दिग्विजयके समय जो समुद्र के समीप वनवेदिकाके मध्यभागको प्राप्त हुआ, जिसने विजयाध पर्वतके तटोंका उल्लंघन किया, जिसने तरंगोंसे चंचल समुद्रकी खीरूप गंगा और सिन्धु नदीको पार किया और हिमवत् कुलाचलकी ऊँचाईको तिरस्कृत किया-उसपर अपना अधिकार किया ऐसा वह जिनशासनका ज्ञाता वदन्त चक्रवर्ती समस्त दिशाओंको जीतकर चक्रवर्तीकी पर्ण लक्ष्मीको प्राप्त हुआ ॥२०८।। इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, भगवजिनसेनाचार्य विरचित त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहमें ललितांगदेवका स्वर्गसे च्युत होने आदिका
वर्णन करनेवाला छठा पर्व पूर्ण हुमा ॥६॥
१. नदीम् । २. जित्वाशां ल.। ३. अषःकृत्य ।