________________
पर्व
१३७
सुधासूतिरिवोदंशुरं शुमानिव चोक्करः । स कान्ति दीप्तिमध्युरुचैः श्रधादप्यद्भुतोदयः ॥ २०१ ॥ पुण्यकल्पतरोरुचैः फलानीव महान्यलम् । बभूवुस्तस्य खानि चतुर्दश 'विशां विभोः ॥ २०२ ॥ निधयो नव तस्यासन् पुण्यानामिव राशयः । येरक्षयैरमुष्यासीद् गृहवार्ता महोदया ॥ २०३ ॥ षट्खण्डमण्डितां पृथ्वीमिति संपालयन्नसौ । दशाङ्गयोगसंभूतिम भुक्क सुकृती चिरम् ॥२०४॥ हरिणीच्छन्दः
इति कतिपयैरेवा होभिः कृती कृतदिग्जयो जयपृतनया सार्द्धं चक्री निवृत्य पुरीं विशन् । सुरपृतनया "साकं शक्रो विशभ्रमरावतीमिव स रुरुचे भास्वन्मौलिज्र्ज्वलन्मणिकुण्डलः ॥ २०५ ॥ मालिनी
विहितनिखिलकृत्योऽप्यात्मपुत्रीविवाह व्यतिकरकरणीये किंचिदन्तः सञ्चिन्तः । पुरमविशदुदारश्रीपरार्ध्यं पुरुश्रीर्मृदुपवनविधूतप्रोल्लस स्केतुमालम् ॥ २०६॥ शार्दूलविक्रीडितम् 'क्षुन्दन्तो लवलीलतास्तटवने सिन्धोर्लवङ्गात
तत्रासीनसुराङ्गनालसलसन्नेत्रैः शनैवक्षिताः । भाभेजुर्विजयार्द्ध कन्दरदरीरामृज्य सेनाचरा
११
यस्यासौ विजयी स्वपुण्यफलितां दीर्घं भुनकि स्म गाम् ॥२०७॥ उसके समीप रहती थीं और कीर्ति समस्त लोकमें फैली हुई थी ||२००|| वह राजा चन्द्रमाके समान कान्तिमान् और सूर्य के समान उत्कर (तेजस्वी अथवा उत्कृष्ट टैक्स वसूल करनेवाला) था। आश्चर्यकारी उदयको धारण करनेवाला वह राजा कान्ति और तेज दोनोंको उत्कृष्ट रूपसे धारण करता था |२०१॥ पुण्यरूपी कल्पवृक्षके बड़ेसे-बड़े फल इतने ही होते हैं यह बात सूचित करनेके लिए ही मानो उस चक्रवर्तीके चौदह महारत्न प्रकट हुए थे || २०२ || उसके यहाँ पुण्यकी राशिके समान नौ अक्षय निधियाँ प्रकट हुई थीं, उन निधियोंसे उसका भण्डार हमेशा भरा रहता था || २०३|| इस प्रकार वह पुण्यवान् चक्रवर्ती छह खण्डोंसे शोभित पृथिवीका पालन करता हुआ चिरकाल तक इस प्रकारके भोग भोगता रहा || २०४ || इस प्रकार देदीप्यमान मुकुट और प्रकाशमान रत्नोंके कुण्डल धारण करनेवाला वह कार्यकुशल चक्रवर्ती कुछ ही दिनों में दिग्विजय कर लौटा और अपनी विजयसेनाके साथ राजधानीमें प्रविष्ट हुआ । उस समय वह ऐसा शोभायमान हो रहा था जैसा कि देदीप्यमान मुकुट और रत्न-कुण्डलोंको धारण करनेवाला कार्यकुशल इन्द्र अपनी देवसेनाके साथ अमरावतीमें प्रवेश करते समय शोभित होता है || २०५ || समस्त कार्य कर चुकनेपर भी जिसके हृदय में पुत्री - श्रीमतीके विवाहकी कुछ चिन्ता विद्यमान है, ऐसे उत्कृष्ट शोभाके धारक उस वज्रदन्त चक्रवर्तीने मन्द मन्द वायुके द्वारा हिलती हुई पताकाओंसे शोभायमान तथा अन्य अनेक उत्तम उत्तम शोभासे श्रेष्ठ अपने नगर में प्रवेश किया था || २०६ || जिसकी सेनाके लोगोंने लवंगकी लताओंसे व्याप्त समुद्रतट के वनों में चन्दन लताओंका चूर्ण किया है, उन वनोंमें बैठी हुई देवांगनाओंने जिन्हें अपने आलस्यभरे सुशोभित नेत्रोंसे धीरे-धीरे देखा है और जिन्होंने विजयार्ध पर्वतकी गुफाओं को स्वच्छ कर
में आश्रय प्राप्त किया है ऐसा वह सर्वत्र विजय प्राप्त करनेवाला वज्रदन्त चक्रवर्ती अपने
१. मनुजपतेः । 'द्वौ विशो वैश्यमनुजी' इत्यभिधानात् । २. वृत्तिः । ३. भोगाः "दिव्यपुरं रमणं णिहि चायणभोयणाय सयणं च । आसणवाहण णह्न दसंग इमे ताणं ॥ [ सरत्ना निषयो दिव्याः पुरं शय्यासने चमूः । नाटय सभाजनं भोज्यं वाहनं चेति तानि वै ॥ ]४ - मभुक्ता म०, ल० । ५. सह । ६. बच्छरादीनां मस्थनजिरादेरिति दीर्घः । ७. श्रीमतीविवाहसंबन्धकरणीये । ८. संचूर्णयन्तः । ९. विजयार्द्धस्य कन्दरदर्यः गुहाः श्रेष्ठाः ताः । १०. आमृद्य द०, ८० । संचूर्ण्य । ११. भूमिम् । १ चौदह रत्न, २ नौ निधि ३ सुन्दर स्त्रियाँ, ४ नगर, ५ आसन, ६ शय्या, ७ सेना, ८ भोजन, ९ पात्र और १० नाटयशाला ।
१८