________________
पष्टं पर्व
मनसीत्याकलय्या' सौ यशोधरगुरोः पराम् । पूजां कर्त्तुं समुत्तस्थौ नृपः पुण्यानुबन्धिनीम् ॥१०८॥ ततः पृतनया सार्द्धमुपसृत्य जगद्गुरुम् । पूजयामास संप्रीतिप्रीत्फुल्ल मुखपङ्कजः ॥ १०९ ॥ तत्पादौ प्रणमन्नेव सोऽलब्धावधिमिद्धधीः । विशुद्धपरिणामेन भक्तिः किं न फलिष्यति ॥ ११० ॥ तेनाबुद्वाच्युतेन्द्रत्वमात्मनः प्राक्तने भवे । ललिताङ्गप्रियायाश्च दुहितृत्वमिहाअसा ॥ ११५ ॥ कृताभिवन्दनस्तस्मान्निवृत्य कृतधीः सुताम् । पण्डितायै समयशु प्रतस्थे दिग्जयाय सः ॥ ११२ ॥ चक्रपूजां ततः कृत्वा चक्री शक्रसमद्युतिः । प्रास्थितासौ दिशां जेतुं ध्वजिन्या सषडङ्गया ॥ ११३ ॥ अथ पण्डितिकान्येयुः निपुणा निपुणं वचः । श्रीमत्याः प्रतिबोधाय रहस्येवमभाषत ॥ ११४ ॥ "अशोकवनिकामध्ये चन्द्रकान्त शिलातले । स्थित्वा सस्नेहमङ्गानि स्पृशन्ती मृदुपाणिना ॥ ११५ ॥ भुखपङ्कज्जसंसर्पदशनांशुजलप्लवैः । तस्या हृदयसंतापमिव निर्वापयम्यसौ ॥ ११६॥ ग्रहं पण्डितिका सत्यं पण्डिता कार्ययुक्तिषु । जननीनिर्विशेषास्मि तव प्राणसमा सखी ॥११७॥ ततो ब्रूहि'मिथः कन्ये धन्ये त्वं मौन कारणम् । नामयो गोपनीयो हि जनम्या इति विश्रुतम् ॥ ११८ ॥ मया सुनिपुणं चित्ते पर्यालोचितमीहितम् । तवासी तु विज्ञातं तम्मे वद पतिवरे ॥ ११९ ॥ किमेष मदनोन्मादः किमालि प्रहविप्लवः । प्रायो हि यौवनारम्भे जृम्भते मदनग्रहः ॥ १२० ॥
१२९
मनमें ऐसा विचार कर वह राजा वज्रदन्त पुण्य बढ़ानेवाली यशोधर महाराजकी उत्कृष्ट पूजा करनेके लिए उठ खड़ा हुआ || १०८|| तदनन्तर सेनाके साथ जाकर उसने जगद्गुरु यशोधर महाराज की पूजा की। पूजा करते समय उसका मुखकमल अत्यन्त प्रफुल्लित हो रहा था ||१०९।। प्रकाशमान बुद्धिके धारक वज्जन्तने ज्यों ही यशोधर गुडके चरणोंमें प्रणाम किया त्यों ही उसे अवधिज्ञान प्राप्त हो गया, सो ठीक ही है, विशुद्ध परिणामोंसे की गयी भक्ति क्या फलीभूत नहीं होगी? अथवा क्या-क्या फल नहीं देगी ? ।। ११०॥ उस अवधिज्ञानसे राजाने जान लिया कि पूर्वभवमें मैं अच्युत स्वर्गका इन्द्र था और यह मेरी पुत्री श्रीमती ललितांगदेवकी स्वयंप्रभा नामक प्रिया थी ।। १११|| वह बुद्धिमान् वज्रदन्त बन्दना आदि करके वहाँ से लौटा और पुत्री श्रीमतीको पण्डिता धायके लिए सौंपकर शीघ्र ही दिग्विजयके लिए चल पड़ा ॥ ११२ ॥ इन्द्र के समान कान्तिका धारकं वह चक्रवर्ती चक्ररत्मकी पूजा करके हाथी, घोड़ा, रथ, पियादे, देव और विद्याधर इस प्रकार षडंग सेनाके साथ दिशाओंको जीतनेके लिए गया ||११३||
तदनन्तर अतिशय चतुर पण्डिता नामकी धाय किसी एक दिन एकान्त में श्रीमतीको समझाने के लिए इस प्रकार चातुर्यसे भरे वचन कहने लगी ॥ ११४॥ | वह उस समय अशोकवाटिकाके मध्य में चन्द्रकान्त शिलातलपर बैठी हुई थी तथा अपने कोमल हाथसे [ सामने बैठी हुई ] श्रीमतीके अंगोंका बड़े प्यार से स्पर्श कर रही थी । बोलते समय उसके मुख-कमलसे जो दाँतोंकी किरणरूपी जलका प्रवाह वह रहा था उससे ऐसी मालूम होती थी मानो वह श्रीमतीके हृदयका सन्ताप ही दूर कर रही हो ।। ११५-११६ ।। वह कहने लगी- हे पुत्र, मैं समस्त कार्योंकी योजना में पण्डिता हूँ - अतिशय चतुर हूँ। इसलिए मेरा पण्डिता यह नाम सत्य है - सार्थक है। इसके सिवाय मैं तुम्हारी माताके समान हूँ और प्राणोंके समान सदा साथ रहनेवाली प्रियसखी हूँ ||११७|| इसलिए हे धन्य कन्ये, तू यहाँ मुझसे अपने मौनका कारण कह । क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि रोग मातासे नहीं छिपाया जाता ॥११८॥ मैंने अपने चित्तमें तेरी इस चेष्टाका अच्छी तरहसे विचार किया है परन्तु मुझे कुछ भी मालूम नहीं हुआ इसलिए हे कन्ये, ठीक-ठीक कह ॥ ११९॥ | हे सखि, क्या यह कामका उन्माद है अथवा किसी ग्रहकी पीड़ा है ? प्रायः करके यौवनके प्रारम्भ
१. विचार्य । २. उद्युक्तोऽभूत् । ३. जिनस्थानात् । ४. सम्पूर्णबुद्धिः । ५. इन्द्रसमतेजाः । ६. अशोकबनम् । ७. कार्यघटनामु । ८. रहसि । ९. पीडा ।
१७