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आदिपुराणम्
विद्धि षड्वयेकसंख्यां च' मत्यादिज्ञानपर्ययात् । नामोद्देशक्रमश्चैषां ज्ञानानामित्यनुस्मृतः ॥ १४७॥ मतिज्ञानमयैकादशाङ्गानि परिकर्म च । सूत्रमाद्यनुयोगं च पूर्वाण्यपि च चूलिकाम् ॥१४८॥ अवधिं च मनः पर्ययाख्यं केवलमेव च । ज्ञानभेदान् प्रतीत्येमान् श्रुतज्ञानमुपोष्यते ॥ १४९ ॥ दिनानां शतमश्रेष्टमष्टापञ्चाशताधिकम् । विद्धि त्वरं: तावालम्ब्य तपोऽनशनमाचर ॥ १५० ॥ उशन्ति ज्ञानसाम्राज्यं विध्योः फलमथैनयोः । स्वर्गाद्यपि फलं प्राहुरनयोरनुषङ्गम् ॥१५१॥ मुनयः पश्य कल्याणि शापानुग्रहयोः क्षमाः । 'प्रतिकान्तिरतस्तेषां लोकद्वयविरोधिनी ॥ १५२ ॥ वाचातिलङ्घनं वाचं निरुणद्धि भवे परे । मनसोल्लङ्घनं चापि स्मृतिमाहन्ति मानसीम् ॥१५३॥ - " कायेनातिक्रमस्तेषां कायासः साधयेत्तराम् । तस्मात्तपोधनेन्द्राणां कार्यो नातिक्रमो बुधैः ॥ १५४॥ क्षमाधनानां क्रोधाग्निं जनाः संधुक्षयन्ति ये । क्षमामस्मप्रतिच्छन्नं दुर्वचो विस्फुलिङ्गकम् ॥ १५५ ॥ संमोहका जनितं प्रातध्ये पवनेरितम् । किं तैर्न नाशितं मुग्धे हितं लोकद्वयाश्रितम् ॥१५६॥ इत्थं मुनिवचः पथ्यमनुमत्य यथाविधि । उपोष्य तद्द्वयं स्वायुरन्ते स्वर्गमयासिषम् ॥१५७॥ ललिताङ्गस्य तत्रासं कान्तादेवी स्वयंप्रभा । सार्द्धं सपर्ययागत्य ततो गुरुमपूजयम् ||११४ || कल्पेऽनल्पर्द्धिरंशाने श्रीप्रमाधिपसंयुता । भोगान् "भुक्त्वात्र जातेति कथापर्यवसानकम् ।। १५९ ।। दो, अठासी, एक, चौदह, पाँच, छह, दो और एक इस प्रकार मतिज्ञान आदि भेदोंकी एक सौ अठावन संख्या होती है। उनका नामानुसार क्रम इस प्रकार हैं कि मतिज्ञानके अट्ठाईस, अंगोंके ग्यारह, परिकर्मके दो, सूत्रके अट्ठासी, अनुयोगका एक, पूर्वके चौदह, चूलिकाके पाँच, अवधिज्ञानके मन:पर्ययज्ञानके दो और केवलज्ञानका एक- इस प्रकार ज्ञानके इन एक सौ अट्ठावन भेदोंकी प्रतीतिकर जो एक सौ अट्ठावन दिनका उपवास किया जाता है उसे श्रुतज्ञान उपवास व्रत कहते हैं । हे पुत्र, तू भी विधिपूर्वक ऊपर कहे हुए दोनों अनशन व्रतोंको आचरण कर ।। १४६-१५०।। हे पुत्र, इन दोनों व्रतोंका मुख्य फल केवलज्ञानकी प्राप्ति और गौण फल स्वर्गादिकी प्राप्ति है। ॥१५१|| हे कल्याणि, देख, मुनि शाप देने तथा अनुग्रह करने- दोनोमें समर्थ होते हैं, इस लिए उनका अपमान करना दोनों लोकोंमें दुःख देनेवाला है || १५२ ।। जो पुरुष वचन द्वारा मुनियोंका उल्लंघन - अनादर करते हैं वे दूसरे भव में गूँगे होते हैं। जो मनसे निरादर करते हैं उनकी मनसे सम्बन्ध रखनेवाली स्मरणशक्ति नष्ट हो जाती है और जो शरीर से तिरस्कार करते हैं उन्हें ऐसे कौन-से दुःख हैं जो प्राप्त नहीं होते हैं ? इसलिए बुद्धिमान् पुरुषोंको तपस्वी मुनियोंका कभी अनादर नहीं करना चाहिए। हे मुग्धे, जो मनुष्य, क्षमारूपी धनको धारण करनेवाले मुनियोंकी, मोहरूपी काष्ठसे उत्पन्न हुई, विरोधरूपी वायुसे प्रेरित हुई, दुर्वचनरूपी तिलगोंसे भरी हुई और क्षमारूपी भस्मसे ढकी हुई क्रोधरूपी अग्निको प्रज्वलित करते हैं उनके द्वारा, दोनों लोकोंमें होनेवाला अपना कौन-सा हित नष्ट नहीं किया जाता ? ।।१५३-१५६।। इस प्रकार मैं मुनिराज के हितकारी वचन मानकर और जिनेन्द्रगुणसम्पत्ति तथा श्रुतज्ञान नामक दोनों व्रतोंके विधिपूर्वक उपवास कर आयुके अन्त में स्वर्ग गयी ॥१५७॥। वहाँ ललितांगदेवकी स्वयंप्रभा नामकी मनोहर महादेवी हुई और वहाँ से ललितांगदेवके साथ मध्यलोकमें आकर मैंने व्रत देनेवाले पिहितास्रव गुरुकी पूजा की || १५८|| बड़ीबड़ी ऋद्धियोंको धारण करनेवाली मैंने उस ऐशान स्वर्ग में श्रीप्रभविमानके अधिपति ललितांग
छह,
१. संख्याश्च अ०, प०, स० द०, ल० । २. पर्ययान् अ०, प०, स० द०, ल० । ३. विधी ब०, अ० द०, म०, प०, ल०, ८० । ४. विधी । ५. - योरनुषङ्गजम् अ०, प०, ६०, म०, ल०, ८० । ६. आनुषङ्गिकम् । ७. समर्थाः । ८. अतिक्रमणम् । ९. कायेनातिक्रमे तेषां कार्तिः सा या न ढोकते । अ०, प०, स०, द० । कायेनातिक्रमस्तेषां कायातिं साधयेत्तराम् म० १०. प्रतीप - अ०, स० द० । ११. प्रातिकूल्यमेव वायुः ।। १२. भुक्त्वा तु ।