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षष्ठं पर्व
१३३ ललिताङ्गच्युतौ तस्मात् षण्मासान् जिनपूजनम् । कृत्वा प्रव्युत्य संभूतिमिहालप्सि तनूदरि ।।१६०॥ तमिदानीमनुस्मृत्य तदन्वेषणसंविधौ । यतेऽहं 'प्रयता तेन वाचंयमविधि दधे ॥१६१॥ उत्कीर्ण इव देवोऽसौ पश्याद्यापि मनो मम । अधितिष्ठति दिन्येन रूपेणानङ्गतां गतः ।। १६२ ।। ललिताङ्गवपुः सौम्यं ललितं ललितानने । 'सहजाताम्बरं सग्वि स्फुरदामरणोज्ज्वलम् ।। १६३ ॥ पश्यामीव सुखस्पर्श तस्करस्पर्शलालिता। तदलाभे च मद्गायं क्षामतां नैतदुमति ॥१६४॥ इमेऽश्रबिन्दवोऽजस्रं निर्यान्ति मम लोचनात् । मददुःखमक्षमा इष्टुं तमन्वेष्टुमिवोद्यताः ॥१६५॥ इत्युक्त्वा पुनरप्यवमवादीत् श्रीमती सखीम् । शक्का स्वमेव नाम्यास्ति मप्रियान्वेषणं प्रति ॥१६६॥ स्वयि सत्यां सरोजाक्षि कुतोऽध स्यान्ममासुखम् । नलिन्याः किमु दौःस्थित्यं तपत्यां तपनद्युतौ ॥१६७॥ सत्यं त्वं पण्डिता कार्यघटनास्वतिपण्डिता । तन्ममैतस्य कार्यस्य संसिदिस्वयि तिष्ठते ॥१६८॥ ततो रक्ष मम प्राणान् प्राणेशस्य गवेषणात् । सीणां विपत्प्रतीकारे त्रिय एवावलम्बनम् ॥१६९॥ "तदुपायं च तेऽद्याहं हुवे "प्रस्तुतसिद्धये । मया विलिखितं पूर्वभवसंबन्धिपट्टकम् ॥१७॥
देवके साथ अनेक भोग भोगे तथा वहाँसे च्युत होकर यहाँ वनदन्त चक्रवर्तीके श्रीमती नामकी पुत्री हुई हूँ। हे सखि, यहाँतक ही मेरी पूर्वभवको कथा है ।।१५९|| हे कृशोदरि, ललिता देवके स्वर्गसे च्युत होनेपर मैं छह महीने तक जिनेन्द्रदेवकी पूजा करती रही फिर वहाँसे चलकर यहाँ उत्पन्न हुई हूँ॥१६०।। मैं इस समय उसीका स्मरण कर उसके अन्वेषणके लिए प्रयत्न कर रही हूँ और इसीलिए मैंने मौन धारण किया है ॥१६१॥ हे सलि, देख, यह ललितांग अब भी मेरे मनमें निवास कर रहा है। ऐसा मालूम होता है मानो किसीने टाँकीद्वारा उकेरकर सदाके लिए मेरे मनमें स्थिर कर दिया हो । यद्यपि आज उसका वह दिव्य-वैक्रियिक शरीर नहीं है तथापि वह अपनी दिव्य शक्तिसे अनंगता (शरीरका अभाव और कामदेवपना) धारण कर मेरे मनमें अधिष्टित है ॥१६२।। हे सुमुखि, जो अतिशय सौम्य है, सुन्दर है, साथ-साथ उत्पन्न हुए वस्त्र तथा माला आदिसे सहित है, प्रकाशमान आभरणोंसे उज्ज्वल है और सुखकर स्पर्शसे सहित है ऐसे ललितांगदेवके शरीरको मैं सामने देख रही हूँ,उसके हाथके स्पर्शसे लालित सुखद स्पर्शको भी देख रही हूँ परन्तु उसकी प्राप्तिके बिना मेरा यह शरीर कृशताको नहीं छोड़ रहा है ॥१६३-१६४।। ये अश्रुबिन्दु निरन्तर मेरे नेत्रोंसे निकल रहे हैं जिससे ऐसा मालूम होता है कि ये हमारा दुःख देखनेके लिए असमर्थ होकर उस ललितांगको खोजनेके लिए ही मानो उद्यत हुए हैं ॥१६५।। इतना कहकर वह श्रीमती फिर भी पण्डिता सखीसे कहने लगी कि हे प्रिय सखि, तू ही मेरे पतिको खोजनेके लिए समर्थ है । तेरे सिवाय और कोई यह कार्य नहीं कर सकता ।।१६।। हे कमलनयने, आज तेरे रहते हुए मुझे दुःख कैसे हो सकता है ? सूर्यकी प्रभाके देदीप्यमान रहते हुए भी क्या कमलिनीको दुःख होता है ? अर्थात् नहीं होता ॥१६७।। हे सखि, तू समस्त कार्योंके करने में अतिशय निपुण है अतएव तू सचमुच में पण्डिता है-तेरा पण्डिता नाम सार्थक है। इसलिए मेरे इस कार्यकी सिद्धि तुझपर ही अवलम्बित है ।।१६८।। हे सखि, मेरे प्राणपति ललितांगको खोजकर मेरे प्राणोंकी रक्षा कर क्योंकि स्त्रियोंकी विपत्ति दूर करनेके लिए स्त्रियाँ ही अवलम्बन होती हैं ॥१६९।। इस कार्यकी सिद्धिके लिए मैं आज
१. पवित्रा । २. मौनम् । ३. देवेन म. ल.। ४. अशरोरत्वम् । ५. नलिनानने अ०, ब०,स०, ल०, म.। ल०, ब०, पुस्तकयोः 'ललितानने' 'नलिनानने' इत्युभयथा पाठोऽस्ति । ६. सहजाताम्बरस्रग्वी म०, ल०। ७. लालितम् प०, ल०। ८. ललिताङ्गस्यालाभे । ९. कृशत्वम् । १०. स्थेयप्रकाशनेति सूत्रात् प्रतिज्ञानिर्णयप्रकाशनेषु आत्मनेपदी । तिष्ठति स० । ११. गवेपणोपायम । १२. प्रकृत ।