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आदिपुराणम् इति पृष्टा तथा किंचिदानम्य मुखपङ्कजम् । पमिनीव दिनापाये परिम्लानं महोत्पलम् ॥१२॥ जगाद श्रीमती सत्यं न शक्कास्मीदृशं वचः । कस्यापि पुरतो वक्तुं लज्जाविवशमानसा ॥१२२॥ किंतु तेऽद्य पुरो नाहं जिह्वेम्यार्त्ता लपन्त्यलम् । जननीनिर्विशेषा त्वं चिरं परिचिता च मे ॥१२३॥ तद् वक्ष्ये शृणु सौम्याङ्गि महतीयं कथा मम । भया प्राग्जम्मचरितं स्मृतं देवागमेक्षणात् ॥१२॥ तत्कीदृशं कथा वेति सर्व वक्ष्ये सविस्तरम् । स्वप्नानुभूतमिव मे स्मृतौ तत्प्रतिभासते ॥१२५॥ अहं पूर्वभवेऽभूवं धातकीखण्डनामनि । महाद्वीपे सरोजाक्षि स्वर्गभूम्यतिशायिनि ॥१२६॥ तत्रास्ति मम्पू र्वाद् विदेहे प्रत्यगाश्रिते । विषयो गन्धिलामिख्यो यः कुम्नपि निर्जयेत् ॥१२॥ तत्रासीत् पाटलीग्रामे नागदत्तो वणिक्सुतः। सुमतिस्तस्य कान्ताभूत् तयोर्जाताः सुता इमे ॥१२८॥ नन्दश्च नन्दिमित्रश्च नन्दिषणाह्वयः परः । वरसेनो जयादिश्च सेनस्तत्सूनवा क्रमात् ॥१२९।। पुत्रिके च तयोर्जाते मदनश्रीपदादिके । कान्ते तयोरहं जाता निर्नामेति कनीयसी ॥१३॥ कदाचित् कानने रम्ये 'चरिते चारणादिके। गिरावम्बरपूर्वेऽहं तिलके पिहितास्रवम् ॥१३॥ नानर्द्धिभूषणं दृष्ट्वा मुनि सावधिबोधनम् । इदमप्राक्षमानम्य संबोध्य भगवनिति ।।१३२।। केनास्मि कर्मणा जाता कुले 'दौर्गत्यशालिनि । ब्रहोदमतिनिर्विण्णां दोनामनुगृहाण माम् ।।१३३॥
इति पृष्टो मुनीन्द्रोऽसौ जगौ मधुरया गिरा । इहैव विषयेऽमुत्र' पुत्रि जातासि कर्मणा ॥१३॥ में कामरूपी ग्रहका उपद्रव हुआ ही करता है।।१२०।।इस तरह पण्डिताधायके द्वारा पूछे जानेपर श्रीमतीने अपना मुरझाया हुआ मुख इस प्रकार नीचा कर लिया जिस प्रकार कि सूर्यास्तके समय कमलिनो मुरझाकर नीचे झुक जाती है। वह मुख नीचा करके कहने लगी-यह सच है कि मैं ऐसे वचन किसीके भी सामने नहीं कह सकती क्योंकि मेराहृदयलज्जासे पराधीनहो रहा है।।१२१-१२२।। कितु आज मैं तुम्हारे सामने कहती हुई लजित नहीं होती हूँ उसका कारण भी है कि मैं इस समय अत्यन्त दुःखी हो रही हूँ और आप हमारी माताके तुल्य तथा चिरपरिचिता हैं ॥१२३॥ इसलिए हे मनोहरांगि, सुन, मैं कहती हूँ। यह मेरी कथा बहुत बड़ी है। आज देवोंका आगमन देखनेसे मुझे अपने पूर्वभवके चरित्रका स्मरण हो आया है ।।१२४॥ वह पूर्वभवका चरित्र कैसा है अथवा वह कथा कैसी है ? इन सब बातोंको मैं विस्तारके साथ कहती हूँ। वह सब विषय मेरो स्मृतिमें अनुभव कियेके समान स्पष्ट प्रतिभासित हो रहा है ॥१२५।।
हे कमलनयने, इसी मध्यलोकमें एक धातकीखण्ड नामका महाद्वीप है जो अपनी शोभासे स्वर्गभूमिको तिरस्कृत करता है । इस द्वीपके पूर्व मेरुसे पश्चिम दिशाको ओर स्थित विदेह क्षेत्रमें एक गन्धिला नामका देश है जो कि अपनी शोभासे देवकुरु और उत्तरकुरुको भी जीत सकता है । उस देशमें एक पाटली नामका ग्राम है उसमें नागदत्त नामका एक वैश्य रहता था। उसकी स्त्रीका नाम सुमति था और उन दोनोंके क्रमसे नन्द, नन्दिमित्र, नन्दिषेण, वरसेन और जयसेन ये पाँच पुत्र तथा मदनकान्ता और श्रीकान्ता नामकी दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुई। पूर्वभवमें मैं इन्हींके घर निर्नामा नामकी सबसे छोटी पुत्री हुई थी ॥१२६-१३०॥ किसी दिन मैंने चारणचरित नामक मनोहर वनमें अम्बरतिलक पर्वतपर विराजमान अवधिज्ञानसे सहित तथा अनेक ऋद्धियोंसे भूषित पिहिताम्रव नामक मुनिराजके दर्शन किये । दर्शन और नमस्कार कर मैंने उनसे पूछा कि हे भगवन, मैं किस कर्मसे इस दरिद्रकुलमें उत्पन्न हुई हूँ। हे प्रभो, कृपा कर इसका कारण कहिए और मुझ दीन तथा अतिशय उद्विग्न स्त्री-जनपर अनुग्रह कीजिए ॥१३१-१३३।। इस प्रकार पूछे जानेपर वे मुनिराज मधुर वाणीसे कहने लगे कि हे पुत्रि, पूर्वभवमें तू अपने कर्मोदयसे इसी देशके पलालपर्वत नामक प्राममें देविलग्राम नामक
१. लज्जाधीनम् । २. अपरम् । ३. मदनकान्तो श्रीकान्तेत्यर्थः । ४. चारणचरिते । ५. भो भगवन्नित्यभिमुखीकृत्य । ६. दारिद्रय । ७. उद्वेगवतीम् । ८. अनाथाम् । ९. पूर्वजन्मनि । 'प्रेत्यामुत्र भवान्तरे'।