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आदिपुराणम् तद्वार्ताकर्णनात्तर्ण' तदभ्यर्ण मुपागतौ । पितरौ तदवस्थां च दैनां शुचमीयतुः ॥९६॥ प्रङ्ग पुत्रि परिष्वङ्गं विधेयुत्सङ्ग मेहि नौ । इति निर्बध्यमानापि मोमुव यदास्त सा ॥९७॥ लक्ष्मीमतिमोवाच प्रभुरिङ्गित कोविदः । जाता ते पुत्रिका तन्वी सेयमापूर्णयौवना ॥९॥ अस्याः सुदति पश्येदं वपुरत्यन्तकान्तिमत् । अनीदशमभूत स्वर्गनारीभिरपि दुर्लभम् ॥१९॥ ततो विकृतिरेषास्या न दुष्यत्यय सुन्दरि । तेन मा स्म भयं देवि शकमानान्यथा गमः ॥१०॥ प्राग्जन्मानुमवः कोऽपि नूनमस्या हदिस्थितः। संस्कारान् प्राक्तनान् प्रायः स्मृत्वा मूर्छन्ति जन्तवः॥१०॥ . इति ब्रुवाण एवासी उत्तस्थी सहकान्तया । नियोज्य पण्डितां धात्री कन्याश्वासनसंविधौ ॥१०२॥ तदा कार्यद्वयं तस्य युगपत् समुपस्थितम् । कैवल्यं स्वगुरोचकसंभूतिश्वायुधालये ॥ १०३॥ तस्कार्यदूतमासाच बभूव क्षणमाकुलः । प्राविधेयं किमवेति स निश्चेतुमशक्नुवन् ॥१०॥ ततः किमत्र कर्तव्यमित्यसौ "संप्रधारयन् । गुरोः कैवल्यसंपूजामादौ निश्चितवान् सुधीः ॥१०५॥ यतो दूरात् समासन्नं कार्य कार्य मनीषिमिः।" म्यतिपाति ततस्तस्मात् प्रधान कार्यमाचरेत्॥१०६॥ ततः शक्यं शुमं तस्मात् तस्माच विपुलोदयम् । धर्मात्मकं च यत् कार्यमहत्पूजादिलक्षणम् ॥१०॥ ॥९५।। सखियोंकी बात सुनकर उसके माता-पिता शीघ्र ही उसके पास गये और उसकी वह अवस्था देखकर शोकको प्राप्त हुए ।।९६॥ हे पुत्री, हमारा आलिंगन कर, गोदमें आ' इस प्रकार समझाये जानेपर भी जब वह मूच्छित हो चुपचाप बैठी रही तब समस्त चेष्टाओं और मनके विकारोंको जाननेवाले वनदन्त महाराज रानी लक्ष्मीमतीसे बोले-हे तन्वि, अब यह तुम्हारी पुत्री पूर्ण यौवन अवस्थाको प्राप्त हो गयी है ।।९७-९८॥ हे सुन्दर दाँतोवाली, देख, यह इसका शरीर कैसा अनुपम और कान्तियुक्त हो गया है। ऐसा शरीर स्वर्गकी दिव्यांगनाओंको भी दुर्लभ है ।। ९९ । इसलिए हे सुन्दरि, इस समय इसका यह विकार कुछ भी दोष उत्पन्न नहीं कर सकता। अतएव हे देवि, तू अन्य-रोग आदिकी शंका करती हुई व्यर्थ ही भयको प्राप्त न हो ।। १०० ।। निश्चय ही आज इसके हृदयमें कोई पूर्वभवका स्मरण हो आया है क्योंकि संसारी जीव प्रायः पुरातन संस्कारोंका स्मरण कर मूञ्छित हो ही जाते हैं । १०१ ॥ यह कहते-कहते वनदन्त महाराज कन्याको आश्वासन देनेके लिए पण्डिता नामक धायको नियुक्त कर लक्ष्मीमतीके साथ उठ खड़े हुए ॥१०२॥ कन्याके पाससे वापस आनेपर महाराज वनदन्तके सामने एक साथ दो कार्य आ उपस्थित हुए । एक तो अपने गुरु यशोधर महाराजको केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई थी अतएव उनकी पूजाके लिए जाना और दूसरा आयुधशालामें चक्ररत्र उत्पन्न हुआ था अतएव दिग्विजयके लिए जाना ॥ १०३ ।। महाराज वनदन्त एक साथ इन दोनों कार्योंका प्रसंग आनेपर निश्चय नहीं कर सके कि इनमें पहले किसे करना चाहिए और इसीलिए वे क्षण-भरके लिए व्याकुल हो उठे ॥१०४।। तत्पश्चात् 'इनमें पहले किसे करना चाहिए' इस बातका विचार करते हुए बुद्धिमान वजदन्तने निश्चय किया कि सबसे पहले गुरुदेव-यशोधर महाराजके केवलज्ञानकी पूजा करनी चाहिए ॥ १०५ ॥ क्योकि बुद्धिमान् पुरुषोंको दूरवर्ती कार्यकी अपेक्षा निकटवर्ती कार्य ही पहले करना चाहिए, उसके बाद दूरवर्ती मुख्य कार्य करना चाहिए ॥१०६॥ इसलिए जिस अर्हन्त पूजासे पुण्य होता है, जिससे बड़े-बड़े अभ्युदय प्राप्त होते हैं, तथा जो धर्ममय आवश्यक कार्य हैं ऐसे अर्हन्तपूजा आदि प्रधान कार्यको ही पहले करना चाहिए ॥ १०७ ॥
१. शोघ्रम् । २. समीपम् । ३. तां दृष्ट्वा ५०, ८० । ४. आलिङ्गनम् । ५. अङ्कम् । ६. आवयोः । ७. निर्वाध्यमानापि अ०, प० । निर्बोध्यमानाऽपि ८०। ८. मोमुह्यते इति मोमुह्या। मोमुंह्येव ल०। मोमुहैव द०, ट०। ९. चित्तविकृतिः । १०.आगतम् । ११. विचारयन्। १२. दूरादासनम् आगतं स्थिरमित्यर्थः । १३. कर्तव्यम् । १४. विनश्वरम ।