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पर्व
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नखैरापाटलै' स्तस्या जिग्ये 'कुरवकच्छविः । अशोकपल्लवच्छाया पादमासाधरीकृता ॥ ६२ ॥ रणन्नूपुरमत्तालीझङ्कार मुखरीकृते । पादारविन्दं साऽधत्त लक्ष्म्या शरवस्कृतास्पदे ॥६३॥ चिरं यदुदवासेन' दधत्कण्टकितां तनुम् । व्रतं चचार तेनाब्जं मन्येऽगात् तत्पदोपमाम् ||६४॥ जङ्के रराजतुस्तस्याः कुसुमेनोरिवेषुधी । ऊरुदण्डौ च विभ्राते कामेभालानयष्टिताम् ॥ ६५ ॥ नितम्बविम्बमेतस्याः सरस्या इव सैकतम् । लसद्दुकूलनीरेण ' ' स्थगितं रुचिमानशे ॥ ६६ ॥ वलिभं दक्षिणावर्त्तनाभिमध्यं बभार सा । नदीव जलमावर्त्तसंशोभिततरङ्गकम्॥६७।।।। मध्यं स्तनमराक्रान्ति"चिन्तयैवात्ततानवम् " । रोमावलिच्छलेनास्या दधेऽवष्टम्भयष्टिकाम् ॥६८॥ नाभिरन्ध्रादधस्तन्वी रोमराजीमसौ दधे । "उपघ्नान्तरमम्बिच्छोः कामाहेः पदवीमिव ॥ ६९|| लतेवासौ मृदू बाहू दधौ विटपसच्छवी । नखांशुमअरी चास्या धत्ते स्म कुसुमश्रियम् ॥७०॥ आनीलचूचुकौ तस्याः कुचकुम्भौ विरेजतुः । पूर्णौ कामरसस्येव नीलरखामिमुद्रितौ ॥७१॥ स्तनांशुकं शुकुच्छायं तस्याः स्तनतटाश्रितम् । बभासे रुद्वपक्केजकुट्मलं " शैवलं यथा ॥७२॥
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करने लगती है उसी प्रकार नवयौवनको पाकर वह श्रीमती भी लोगोंको अधिक आनन्दितं करने लगती थी ||६१।। उसके गुलाबी नखोंने कुरवक पुष्पकी कान्तिको जीत लिया था और चरणोंकी आभाने अशोकपल्लवोंकी कान्तिको तिरस्कृत कर दिया था ॥ ६२ ॥ वह श्रीमती, रुनझुन शब्द करते हुए नूपुररूपी मत्त भ्रमरोंकी झंकार से मुखरित तथा लक्ष्मीके सढ़ा निवासस्थानस्वरूप चरणकमलोंको धारण कर रही थी ॥ ६३ ॥ मैं मानता हूँ कि कमलने चिरकाल तक पानीमें रहकर कण्टकित (रोमाचित, पक्ष में काँटेदार) शरीर धारण किये हुए जो व्रताचरण किया था उसीसे वह श्रीमतीके चरणोंकी उपमा प्राप्त कर सका था ॥ ६४ ॥ उसकी दोनों जंघाएँ कामदेवके तरकसके समान शोभित थीं, और ऊरुदण्ड (जाँघें) कामदेवरूपी हस्तीके बन्धनस्तम्भकी शोभा धारण कर रहे थे || ६५ || शोभायमान वस्त्ररूपी जलसे तिरोहित हुआ उसका नितम्बण्डल किसी सरसीके बालूके टीलेके समान शोभाको प्राप्त हो रहा था ।। ६६ ।। वह त्रिवलियोंसे सुशोभित तथा दक्षिणावर्त्त नाभिसे युक्त मध्यभागको धारण कर रही थी इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो भँवरसे शोभायमान और लहरोंसे युक्त जलको धारण करनेवाली नदी ही हो ||६७|| उसका मध्यभाग स्तनोंका बोझ बढ़ जानेकी चिन्तासे ही मानो कृश हो गया था और इसीलिए उसने रोमावलिके छलसे मानो सहारेकी लकड़ी धारण की थी ॥ ६८ ॥ | वह नाभिरन्धके नीचे एक पतली रोमराजिको धारण कर रही थी जो ऐसी जान पड़ती थी मानो दूसरा आश्रय चाहनेवाले कामदेवरूपी सर्पका मार्ग ही हो ||६९ || वह श्रीमती स्वयं लताके समान थी, उसकी भुजाएँ शाखाओंके समान थीं और नखोंकी किरणें फूलोंकी शोभा धारण करती थीं ||७०|| जिनका अग्रभाग कुछ-कुछ श्यामवर्ण है ऐसे उसके दोनों स्तन ऐसे शोभायमान होते थे मानो कामरससे भरे हुए और नीलरत्नकी मुद्रासे अंकित दो कलश ही हों ॥ ७१ ॥ उसके स्तनतटपर पड़ी हुई हरे रंगकी चोली ऐसी शोभायमान हो रही थी मानो कमलमुकुलपर पड़ा हुआ
१. ईषदरुण: । ' श्वेतरक्तस्तु पाटल:' । २. अरुणसैरेयकः । ३. अधः कृता । ४. लक्ष्मीशश्व - अ०, स० । ५. उदके आवास: उदवासः तेन । ६. रोमहर्षिताम् । पक्षे संजातकण्टकाम् । 'रोमहर्षे च कण्टकः ' इत्यभिधानात् । ७. चवारि म०, ल० । ८. व्रतेन । ९. बन्धस्तम्भताम् । १०. पुलिनम् । ११. आच्छादितम् । १२. वलयः अस्य मन्तीति वलिभः तम् । वलितं अ०, प०, स० द० । १३. - भिसतरङ्गकम् द०, स०, म०, ल०, अ० । १४. आक्रमणम् । १५. स्वीकृततनुत्वम् । १६ आधारयष्टिम् । १७. आश्र यान्तरम् । 'स्यादुपध्नोऽन्तिकाश्रये' इत्यभिधानात् । १८. अन्वेष्टुमिच्छो: गवेषणशीलस्य । १९. मार्गः । २० शाखा । २१ – कुड्मलं अ०, स० द०, म०, ल० ।