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आदिपुराणम् तस्येति परमानन्दात् काले गच्छति धीमतः । स्वयंप्रभा दिवश्च्युवा क्वोत्पन्नत्यधुनोच्यते ॥४९॥ अथ स्वयंप्रमादेवी तस्मिन् प्रच्युतिमीयुषि । तद्धियोगाच्चिरं खिसा चक्राइव विमर्तृका ॥५०॥ शुचाविव च संतापधारिणी भूरभूदमाः । समुसितकलालापा कोकिलेव धनागमे ॥५१॥ दिव्यस्येवौषधस्यास्य विरहात्ता तथा सतीम् । माधयोऽपीडयन् गाढं न्याधिकल्पाः सुदुःसहाः ॥५२॥ ततोऽस्या रहधर्माख्यो देवोऽन्तःपरिषद्भवः । शुचं व्यपोस सन्मार्गे मतिमासञ्जयत्तराम् ॥५३॥ सा चित्रप्रतिमेवासीत् तदा भोगेषु निःस्पृहा । विमुक्तमृतिमीशूरपुरुषस्येव शेमुषी ॥५४॥ श्रीमती सा भविष्यन्ती भग्यमालेव "धर्ममा । षण्मासान् जिनपूजायामुद्यताऽभून्मनस्विनी ॥५५॥ ततः सौमनसोचानपूर्वदिग्जिनमन्दिरे । मूले चैत्यतरोः सम्यक् स्मरन्ती गुरुपञ्चकम् ॥५६॥ समाधिना कृतप्राणत्यागा प्राच्योष्ट सा दिवः । तारकेव निशापाये सहसाऽश्यतां गता ॥५॥ प्राग्भाषिते विदेहेऽस्ति नगरी पुण्डरीकिणी । तस्याः पतिरभूधाम्ना वज्रदन्तो महीपतिः ॥५॥ लक्ष्मीरिवास्य कान्तानी लक्ष्मीमतिरभूत् प्रिया । स तया कल्पवल्ल्येव' सुरागोऽलकृतो नृपः॥५९॥ तयोः पुत्री बभूवासौ विश्रुता श्रीमतीति या । पताकेव मनोजस्य रूपसौन्दर्यलीलया ॥६०॥ नवयौवनमासाथ मधुमासमिवाधिकम् । लोकस्य प्रमदं तेने बाला शशिकलेव सा ॥६॥ ... - इस प्रकार उस बुद्धिमान वनजंघका समय बड़े आनन्दसे व्यतीत हो रहा था। अब स्वयंप्रभा महादेवी स्वर्गसे च्युत होकर कहाँ उत्पन्न हुई इस बातका वर्णन किया जाता है ॥४९॥ ललितादेवके स्वर्गसे च्युत होनेपर वह स्वयंप्रभा देवी उसके वियोगसे चकवाके बिना चकवीकी तरह बहुत ही खेदखिन्न हुई ॥५०॥ अथवा प्रीष्मऋतुमें जिस प्रकार पृथ्वी प्रभारहित होकर संताप धारण करने लगती है उसी प्रकार वह स्वयंप्रभा भी पतिके विरहमें प्रभारहित होकर संताप धारण करने लगी और जिस प्रकार वर्षा ऋतुमें कोयल अपना मनोहर आलाप छोड़ देती है उसी प्रकार उसने भी अपना मनोहर आलाप छोड़ दिया थावह पति के विरहमें चुपचाप बैठी रहती थी ॥५१॥ जिस प्रकार दिव्य ओषधियोंके अभावमें अनेक कठिन बीमारियाँ दुःख देने लगती हैं उसी प्रकार ललिताङ्गदेवके अभावमें उस पतिव्रता स्वयंप्रभाको अनेक मानसिक व्यथाएँ दुःख देने लगी थीं ॥५२॥ तदनन्तर उसकी अन्तःपरिपदके सदस्य दृढधर्म नामके देवने उसका शोक दूर कर सन्मार्गमें उसकी मति लगायी ॥५३॥ उस समय वह स्वयंप्रभा चित्रलिखित प्रतिमाके समान अथवा मरणके भयसे रहित शूरवीर मनुष्यकी बुद्धिके समान भोगोंसे निस्पृह हो गयी थी ॥५४॥ जो आगामी कालमें श्रीमती होनेवाली है ऐसी वह मनस्विनी (विचारशक्तिसे सहित ) स्वयंप्रभा, भव्य जीवोंकी श्रेणीके समान धर्म सेवन करती हुई छह महीने तक बराबर जिनपूजा करने में उद्यत रही ॥५५॥ तदनन्तर सौमनस वनसम्बन्धी पूर्वदिशाके जिनमन्दिरमें चैत्यवृक्षके नीचे पञ्चपरमेष्ठियोंका भले प्रकार स्मरण करते हुए समाधिपूर्वक प्राण त्याग कर स्वर्गसे च्युत हो गयी। वहाँसे च्युत होते ही वह रात्रिका अन्त होनेपर तारिकाकी तरह क्षण एकमें अदृश्य हो गयी ॥५६-५७॥
जिसका वर्णन पहले किया जा चुका है ऐसे विदेह क्षेत्र में एक पुण्डरीकिणी नगरी है। वदन्त नामक राजा उसका अधिपति था। उसकी रानीका नाम लक्ष्मीमती था जो वास्तवमें लक्ष्मीके समान ही सुन्दर शरीरवाली थी। वह राजा उस रानीसे ऐसा शोभायमान होता था जैसे कि कल्पलतासे कल्पवृक्ष ॥५८-५९॥ वह स्वयंप्रभा उन दोनोंके भीमती नामसे प्रसिद्ध पुत्री हुई। वह श्रीमती अपने रूप और सौन्दर्यकी लीलासे कामदेवकी पताकाके समान मालूम होती थो॥६०॥ जिस प्रकार चैत्र मासको पाकर चन्द्रमाकी कला लोगोंको अधिक आनन्दित ... १. इति प्रश्ने कृते। २. ललिताने। ३. आषाढ़े । ४.विगतकान्तिः । ५. मनःपीडाः। ६.-पीपिडन अ०, ५०, स०,०। ७. संदशाः । ८.परिषत्त्रयदेवेष्वभ्यन्तरपरिषदि भवः । ९.नितरां संसक्तामकरोत् । १०.समहः। ११. प्रौढा । १२. च्युतवती । च्युङ गताविति धातोः । १३. कल्पतरुः । पक्षे शोभनरागः । १४. शोभया।