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आदिपुराणम् नमस्कारपदान्युञ्चरनुध्यायमसाध्वसः । साध्वसौ मुकुलीकृत्य करौ'प्रायाददृश्यताम् ॥२५॥ जम्बूद्वीपे महामरोविदेह पूर्वदिग्गते । या पुष्कलावतीत्यासीत् जानभूमिमनोरमा ॥२६॥ स्वर्गभूनिर्विशेषां तां पुरमुत्पलखेटकम् । भूषयत्युत्पलच्छाशालिवप्रादिसंपदा ॥२७॥ वज्रबाहुः पतिस्तस्य वज्रीवाज्ञापरोऽभवत् । कान्ता वसुन्धरास्यासोद् द्वितीयेव वसुन्धरा ॥२८॥ तयोः सूनुरभवो कलिताङ्गस्ततश्च्युतः । वज्रज इति ख्यातिं दधदन्वर्थतां गताम् ॥२९॥ स बन्धुकुमुदानन्दी प्रत्यहं वर्द्धयन् कलाः । संकोचयन् द्विषत्पद्मान् ववृधे बालचन्द्रमाः ॥३०॥ आरूढयौवनस्यास्य रूपसंपदनीहशी। जाता कान्तिरिवापूर्णमण्डलस्य निशाकृतः ॥३१॥ शिरस्यस्य बभुर्नीला मूर्द्धजाः कुचिनयताः । कामकृष्णभुजङ्गस्य शिशयो ने विजम्भिताः ॥३२॥ नेत्रभृत मुखाब्जे स स्मितांशस्करकेसरे। धत्ते स्म मधुरां वाणों मकरन्दरसोपमाम् ॥३३॥ . नेत्रयोतियं रेजे संसतं तस्य कर्णयोः । सश्रुती वाविवाश्रित्य 'शिक्षितुं सूक्ष्मदर्शिताम् ॥३॥ 'उपकण्ठमसौ दभ्रे हारं नीहारसच्छविम् । तारानिकरमास्येन्दोरिव सेवार्थमागतम् ॥३५॥
वक्षःस्थलेन पृथुना सोऽधाचन्दनचर्चिकाम् । मेलर्निजतटीलग्नां शारदीमिव चन्द्रिकाम् ॥३६॥ धान चित्त होकर चैत्यवृक्षके नीचे बैठ गया तथा वहीं निर्भय हो हाथ जोड़कर उच्चस्वरसे नमस्कार मन्त्रका ठीक-ठीक उच्चारण करता हुआ अदृश्यताको प्राप्त हो गया ।।२४-२५।।
___ इसी जम्बूद्वीपके महामेरुसे पूर्व दिशाकी ओर स्थित विदेह क्षेत्रमें जो महामनोहर पुष्कलावती नामका देश है वह स्वर्गभूमिके समान सुन्दर है । उसी देशमें एक उत्पलखेटक नामका नगरहै जो कि कमलोंसे आच्छादित धानके खेतों,कोट और परिखा आदिकी शोभासे उस पुष्कलावती देशको भूषित करतारहता है।२६-२७। उस नगरीका राजावत्रबाहु था जो कि इन्द्रके समान आज्ञा चलानेमें सदा तत्पर रहता था। उसकी रानीका नाम वसुन्धरा था। वह वसुन्धरा सहनशीलता आदि गुणोंसे ऐसी शोभायमान होती थी मानो दूसरी वसुन्धरा-पृथिवी ही होबा वह ललिताङ्गनामका देव स्वर्गसे च्युत होकर उन्हीं-वज्रबाहु और वसुन्धराके, वनके समान जंघा होनेसे वनजंघ' इस सार्थक नामको धारण करनेवाला पुत्र हुआ॥२९॥ वह वनजंघ शत्रुरूपी कमलोंको संकुचित करता हुआ बन्धुरूपी कुमुदोंको हर्षित (विकसित) करता था तथा प्रतिदिन कलाओं (चतुराई, पक्षमें चन्द्रमाका सोलहवाँ भाग) की वृद्धि करता था इसलिए द्वितीयाके चन्द्रमाके समान बढ़ने लगा॥३०॥ जब वह यौवन अवस्थाको प्राप्त हुआ तब उसकी रूपसंपत्ति अनुपम हो गयी जैसे कि चन्द्रमाक्रम-क्रमसे बढ़कर जब पूर्ण हो जाता है तब उसकी कान्ति अनुपम हो जाती है ।।३१।। उसके शिरपर काले कुटिल और लम्बे बाल ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानोकामदेवरूपी काले सर्पके बढ़े हुए बच्चे ही हों॥३२॥ वह वनजंघ, नेत्ररूपी भ्रमर और हास्यकी किरणरूपी केशरसे सहित अपने मुखकमलमें मकरन्दरसके समान मनोहर वाणीको धारण करता था।।३३।। कानोंसे मिले हुए उसके दोनों नेत्र ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो वे अनेक शास्त्रोंका श्रवण करनेवाले कानोंके समीप जाकर उनसे सूक्ष्मदर्शिता (पाण्डित्य और बारीक पदार्थको देखनेकी शक्ति)का अभ्यास ही कर रहे हों॥३४|| वह वनजंघ अपने कण्ठके समीप जिस हारको धारण किये हुए था वह नीहार-बरफके समान स्वच्छ कान्तिका धारक था तथा ऐसा मालूम होता था मानो मुखरूपी चन्द्रमाकी सेवाके लिए तारोंका समूह ही आया हो ॥३५|| वह अपने विशाल वक्षस्थलपर चन्दनका विलेपन धारण कर रहा था जिससे ऐसा मालूम होता था मानो अपने तटपर शरद् ऋतुकी चाँदनी धारण किये हुए मेरु पर्वत ही
१. आगमत् । २. विषयः । जनसंबन्धिभूमिः, जनपद इत्यर्थः । जन्मभूमिः अ०, स०, द० । जनभूमिः ल. ३. समानाम् । ४. कुटिल । ५. इव । ६. मुखाब्जेऽस्य ल०, म० । ७. शास्त्रश्रवणसहितो। ८. अभ्यास कर्तुम् । ९. कण्ठस्य समीपे । १०. -तटालग्नां अ०, ५०, ८०, स० ।-तटे लग्नां म० ।