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षष्ठं पर्व
कदाचिदथ तस्यासन् भूषासंबन्धिनोऽमलाः । मणवस्तेजसा मन्दा निशापायप्रदीपवत् ॥१॥ माला च सहजा तस्य महोरःस्थलसंगिनी । म्लानिमागोदमुज्येव लक्ष्मीविश्लेषमीलुका ॥२॥ प्रचकम्पे तदावाससंबन्धी कल्पपादपः । तद्वियोगमहावातभूतः साध्वसमादधत् ॥३॥ तनुच्छाया च तस्यासीत् सद्यो मन्दायिता तदा । पुण्यातपत्रविश्लेषे तच्छाया क्वावतिष्ठताम् ॥४॥ तमालोक्य तदाध्वस्तकान्ति विच्छायतां गतम् । न शेकुटुमैशानकल्पजा दिविजाः शुचा ॥५॥ तस्य दैन्यात् परिप्राप्ता दैन्यं तत्परिचारकाः । तरौ चलति शाखाथा विशेषास चलन्ति किम् ॥६॥ आजन्मनो यदेतेन निविष्टं सुखमामरम् । तत्तदा पिडितं सर्वदुःखमय मिवागमत् ॥७॥ १२तत्कण्ठमालिकाम्लानिवच: "कल्पान्तमानशे । शीघ्ररूपस्य लोकान्तमणोरिव विचेष्टितम् ॥८॥ अथ सामानिका देवाः तमुपेत्य तथोचितम् । तद्विषादापनोदीदं"पुष्कलं वचनं जगुः ॥९॥ मो धीर धोरतामेव मावयाच शुचं त्यज । बन्ममृत्युजरातकमयानां को न गोचरः ॥१०॥ "साधारणीमिमा विदि सर्वेषां प्रच्युति दिवः ।"पौरायुषि परिक्षीणे न वोढुं क्षमते क्षणम् ॥११॥
इसके अनन्तर किसी समय उस ललिताङ्गदेवके आभूषणसम्बन्धी निर्मलमणि अकस्मात् प्रातःकालके दीपकके समान निस्तेज हो गये॥१॥ जन्मसे ही उसके विशाल वक्षःस्थलपर पड़ी हई माला ऐसीम्लान होगयी मानो उसके वियोगसे भयभीत हो उसकी लक्ष्मी हीम्लान हो गयी हो ॥२॥ उसके विमानसम्बन्धी कल्पवृक्ष भी ऐसे काँपने लगे मानो उसके वियोगरूपी महावायुसे कम्पित होकर भयको ही धारण कर रहे हों ।।३।। उस समय उसके शरीरकी कान्ति भी शीघ्र ही मन्द पड़ गयी थी सो ठीक ही है क्योंकि पुण्यरूपी छत्रका अभाव होनेपर उसकी छाया कहाँ रह सकती है ? अर्थात् कहीं नहीं ॥४॥ उस समय कान्तिसे रहित तथा निष्प्रभताको प्राप्त हुए ललितादेवको देखकर ऐशानस्वर्गमें उत्पन्न हुए देव शोकके कारण उसे पुनः देखनेके लिए समर्थ न हो सके ।।५।। ललिताङ्गदेवकी दोनता देखकर उसके सेवक लोग भी दीनताको प्राप्त हो गये सो ठीक है वृक्षके चलनेपर उसकी शाखा उपशाखा आदि क्या विशेष रूपसे नहीं चलने लगते ? अर्थात् अवश्य चलने लगते हैं ॥६॥ उस समय ऐसा मालूम होता था कि इस देवने जन्मसे लेकर आज तक जो देवों सम्बन्धी सुख भोगे हैं वे सबके सब दुःख बनकर ही आये हों ॥७॥ जिस प्रकार शीघ्र गतिवाला परमाणु एक ही समयमें लोकके अन्त तक पहुँच जाता है उसी प्रकार ललिताङ्गदेवकी कण्ठमालाकी म्लानताका समाचार भी उस स्वर्गके अन्त तक व्याप्त हो गया था ॥८॥ अथानन्तर सामाजिक जातिके देवोंने उसके समीप आकर उस समयके योग्य तथा उसका विषाद दूर करनेवाले नीचे लिखे अनेक वचन कहे ॥९॥ हे धीर, आज अपनी धीरताका स्मरण कीजिए और शोकको छोड़ दीजिए। क्योंकि जन्म, मरण, बुढ़ापा, रोग और भय किसे प्राप्त नहीं होते ? ॥१०॥ स्वर्गसे च्युत होना सबके लिए साधारण बात है क्योंकि आयु क्षीण होनेपर यह स्वर्ग क्षण-भर भी धारण करने के लिए
१. निजायुषि षण्मासावशिष्टकाले । २. -मगाद-अ०, प० । ३. भयम् । ४. क्वाप्रतिष्ठते । ५. तदालोक्य म०, ल०। ६. तमाध्वस्त म०, ल०। ७. विवर्णत्वम् । ८. अनुभुक्तम् । ९. देवसंबन्धि । १०. दुःखत्वम् । ११.-मिवागतम् म०, ल०। १२. कण्ठस्थितस्रक् । १३. ईशानकल्पान्तम् । १४. मनोहरम् । १५. समानाम् । १६. स्वर्गः । * आयुके छह माह बाकी रहनेपर ।