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षष्ट पर्व
१२१ नित्यालोकोऽप्यनालोको द्युलोकः प्रतिभासते । विगमात् पुण्यदीपस्य समन्तादधकारितः ॥१२॥ यथा रतिरभूत् स्वर्ग पुण्यपाकादनारतम् । तथैवात्रारतिर्भूयः क्षीणपुण्यस्य जायते ॥१३॥ न केवलं परिम्लानिः मालायाः सहजन्मनः । पापातपे तपस्यन्ते जन्तोानिस्तनोरपि ॥१४॥ कम्पते हृदयं पूर्व चरमं कल्पपादपः । गलति श्रीः 'पुरा पश्चात् तनुच्छाया समं हिया ॥१५॥ जनापराग एवादौ जम्मते जृम्भिका परम् । वाससोरपरागश्च पश्चात् "पापोपरागतः ॥१६॥ कामरागावमङ्गश्च" मानमगादनन्तरम् । मनः पूर्व तमोरुन्दे दशौ पश्चादनीडशम् ॥१७॥ प्रत्यासाच्युतेरेवं यद् दौःस्थित्यं दिवौकसः । न तत् स्यामारकस्यापि प्रत्यक्षं तच्च तेऽधुना ॥१८॥ यथोदितस्य सूर्यस्य निश्चितोऽस्तमयः पुरा । तथा पातोन्मुखः स्वर्ग जन्तोरभ्युदयोऽप्ययम् ॥१९॥ तस्मात् मा स्म गमः शोकं कुयोन्यावर्तपातिनम् । धर्म मति निधस्स्वार्य धर्मो हिरणं परम् ॥२०॥ कारणास विना कार्यमार्य जातुचिदीक्ष्यते । पुण्यं च कारणं प्राहुः बुधाः स्वर्गापवर्गयोः ॥२१॥ तत्पुण्यसाधने जैने शासने मतिमादधत्" । विषादमुत्सृजानून "येनानेना भविष्यसि ॥२२॥ इति तद्वचनाद् धैर्यमवलम्ब्य स धर्मधीः। मासाई भुवने कृरस्ने जिनवेश्मान्यपूजयत् ॥२३॥
ततोऽध्युतस्य कल्पस्य जिनबिम्बानि" पूजयन् । तच्चैत्यगममूलस्थः स्वायुरन्ते समाहितः ॥२४॥ समर्थ नहीं है ॥११॥ सदा प्रकाशमान रहनेवाला यह स्वर्ग भी कदाचित् अन्धकाररूप प्रतिभासित होने लगता है क्योंकि जब पुण्यरूपी दीपक बुझ जाता है तब यह सब ओरसे अन्धकारमय हो जाता है ।।१२। जिस प्रकार पुण्यके उदयसे स्वर्ग में निरन्तर प्रीति रहा करती है उसी प्रकार पुण्य क्षीण हो जानेपर उसमें अप्रीति होने लगती है ॥१३॥ आयुके अन्तमें देवोंके साथ उत्पन्न होनेवाली माला ही म्लान नहीं होती है किन्तु पापरूपी आतपके तपते रहनेपर जीवोंका शरीर भी म्लान हो जाता है ।।१४।। देवोंके अन्त समयमें पहले हृदय कम्पायमान होता है,पीछे कल्पवृक्ष कम्पायमान होते है। पहले लक्ष्मीनष्ट होती है फिर लजाके साथ शरीरकी प्रभा नष्ट होती है ।।१५।। पापके उदयसे पहले लोगोंमें अस्नेह बढ़ता है फिर जुभाईकी वृद्धि, होती है, फिर शरीरके वस्त्रोंमें भी अप्रीति उत्पन्न हो जाती है ॥१६॥ पहले मान भंग होता है पश्चात् विषयोंकी इच्छा नष्ट होती है । अज्ञानान्धकार पहले मनको रोकता है पश्चात् नेत्रोंको रोकता है ।।१७। अधिक कहाँतक कहा जाये, स्वर्गसे च्युत होनेके सम्मुख देवको जो तीव्र दुःख होता है वह नारकीको भी नहीं हो सकता । इस समय उस भारी दुःखका आप प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हैं ॥१८॥ जिस प्रकार उदित हुए सूर्यका अस्त होना निश्चित है उसी प्रकार स्वर्गमें प्राप्त हुए जीवोंके अभ्युदयोंका पतन होना भी निश्चित है ।।१९।। इसलिए हे आर्य, कुयोनिरूपी आवर्तमें गिरानेवाले शोकको प्राप्त न होइए तथा धर्ममें मन लगाइए, क्योंकि धर्म ही परम शरण है ॥२०॥ हे आर्य, कारणके बिना कभी कोई कार्य नहीं होता है और चूकि पण्डितजन पुण्यको ही स्वर्ग तथा मोक्षका कारण कहते हैं ।।२१। इसलिए पुण्यके साधनभूत जैनधर्म में ही अपनी बुद्धि लगाकर खेदको छोड़िए, ऐसा करनेसे तुम निश्चय ही पापरहित हो जाओगे ।।२२।। इस प्रकार सामानिक देवोंके कहनेसे ललिताङ्गदेवने धैर्यका अवलम्बन किया, धर्ममें बुद्धि लगायी और पन्द्रह दिन तक समस्त लोकके जिन-चैत्यालयोंकी पूजा की ॥२३॥ तत्पश्चात् अच्युत स्वर्गकी जिनप्रतिमाओंकी पूजा करता हुआ वह आयुके अन्त में वहीं साव
१. संततप्रकाशः । २. प्रकाशरहितः। ३. विरामात् अ०, ५०, ल.। ४. आदी। ५. पश्चात् । ६. प्रगे म०, द०। पूर्वम् । ७. जनानां विरागः । ८. पश्चात् । ९. अपगतरागः। १०. पाप्रग्रहणात् । ११. अव समन्ताद् भङ्गः। १२. रुणद्धि । १३. -त्यं त्रिदिवो-स०,८०,०,५०, ल० । १४. पुरः अ०, स०,६०, १०। पुराः ल०। १५. -मादधे ल०। १६.-मुत्सृजेनूनं ल.। १७. विषादत्यजनेन । १८. पापरहितः । १९. -बिम्बानपूजयत ल० । २०. समाधानचित्तः ।