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पञ्चमं पर्व
११९ स तया मन्दरे कान्तचन्द्रकान्तशिलातले । 'भृङ्गकोकिलवाचालनन्दनादिवनाचिते ॥२९०।। नीलादिष्वचलेन्द्रेषु खचराचलसानुषु । कुण्डले रुचके चाद्री मानुषोत्तरपर्वते ॥२९१॥ नन्दीश्वरमहाद्वीपे द्वीपेष्वन्येषु साधिषु । मोगभूम्यादिदेशेषु दिग्यं देवोऽवसत् सुखम् ।।२९२।।
मालिनीच्छन्दः इति परममुदारं दिव्यभोगं "महर्खिः समममरवधूमिः सोऽन्वभूदद्भुतश्रीः । 'स्मितहसितविलासस्पष्टचेष्टामिरिष्टं स्वकृतसुकृतपाकात् साधिकं वार्चिमेकम् ॥२९३॥ स्वतनुमत तीवासमतापैस्तपोभिर्यदयमकृत धीमान् निष्कलकाममुत्र । तदिह रुचिरमामिः स्वर्वधूमिः सहायं सुखममजत तस्माधर्म एवार्जनीयः ॥२९॥ कुरुत तपसि तृष्णां भोगतृष्णामपास्य श्रियमधिकतरां चेद् वान्छथ "प्राचतेशम् । जिनमवृजिनमार्यास्तद्वचः श्रधीध्वं कुकवि 'विरुतमन्यच्छासनं माधिगीध्वम् ॥२९५॥
वसन्ततिलकम् इत्थं विकथ्यपुरुषार्थसमर्थनो यो धर्मः कुकर्मकुटिलाटविसत्कुठारः" । तं सेवितुं बुधजनाः "प्रयतध्वमाध्वं जैने मते "कुमतिभेदिनि सौख्यकामाः ॥२९६॥ इत्यार्षे भगवजिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे ललिताङ्गस्वर्गभोग
वर्णनं नाम पञ्चमं पर्व ॥५॥ हस्तीके समान चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहता था ।२८|| वह देव उस स्वयंप्रभाके साथ कभी मनोहर चन्द्रकान्त शिलाओंसे युक्त तथा भ्रमर, कोयल आदि पक्षियों-द्वारा वाचालित नन्दन आदि वनोंसे सहित मेरुपर्वतपर, कभी नील निषध आदि बड़े-बड़े पर्वतोपर, कभी विजयार्धके शिखरोंपर, कभी कुण्डलगिरिपर, कभी रुचकगिरिपर, कभी मानुषोत्तर पर्वतपर, कभी नन्दीश्वर महाद्वीपमें, कभी अन्य अनेक द्वीपसमुद्रोंमें और कभी भोगभूमि आदि प्रदेशोंमें दिव्यसुख भोगता हुआ निवास करता था।॥२९०-२९२।। इस प्रकार बड़ी-बड़ी ऋद्धियोंका धारक
और अद्भुत शोभासे युक्त वह ललिताङ्गदेव, अपने किये हुए पुण्य कर्मके उदयसे, मन्द-मन्द मुसकान, हास्य और विलास आदिके द्वारा स्पष्ट चेष्टा करनेवाली अनेक देवाङ्गनाओंके साथ कुछ अधिक एक सागर तक अपनी इच्छानुसार उदार और उत्कृष्ट दिव्यभोग भोगता रहा ।।२९३|| उस बुद्धिमान् ललिताङ्गदेवने पूर्वभवमें अत्यन्त तीव्र असा सन्तापको देनेवाले तपश्च द्वारा अपने शरीरको निष्कलङ्क किया था इसलिए ही उसने इस भवमें मनोहर कान्तिकी धारक देवियोंके साथ सुख भोगे अर्थात् सुखका कारण तपश्चरण वगैरहसे उत्पन्न हुआ धर्म है अतः सुख चाहनेवालोंको हमेशा धर्मका ही उपार्जन करना चाहिए ।।२९४॥ हे आर्य पुरुषो, यदि अतिशय लक्ष्मी प्राप्त करना चाहते हो तो भोगोंकी तृष्णा छोड़कर तपमें तृष्णा करो तथा निष्पाप श्री जिनेन्द्रदेवकी पूजा करो और उन्हींके वचनोंका श्रद्धान करो, अन्य मिथ्यादृष्टि कुकवियोंके कहे हुए मिथ्यामतोंका अध्ययन मत करो ।।२९५।। इस प्रकार जो प्रशंसनीय पुरुषार्थोंका देनेवाला है और कर्मरूपी कुटिल वनको नष्ट करनेके लिए तीक्ष्ण कुठारके समान है ऐसे इस जैनधर्मकी सेवाके लिए हे सुखाभिलाषी पण्डितजनो, सदा प्रयत्न करो और दुर्बुद्धिको नष्ट करनेवाले जैनमतमें आस्था-श्रद्धा करो॥२९॥ इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवजिनसेनाचार्य विरचित त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहमें
ललिताङ्ग स्वर्गभोग वर्णन नामका पञ्चम पर्व पूर्ण हुभा ॥५॥ १. कान्तं चन्द्रकान्तशिलातलं यस्मिन् मन्दरे स तथोक्तस्तस्मिन् । २. इदमपि मन्दरस्य विशेषणम् । ३. --वनान्विते अ०, ल०। ४. चाब्धिषु प०,ल०। ५. अणिमादिऋद्धिमान् । ६. गर्वयुक्तम् । ७. अदभ्रः । ८. इह स्वर्गे। ९ सहायः ट। भाग्यसहितः । (सह + अयम् इति छेदोऽन्यत्र) १०. पूजयत । ११. कथितम् । १२. श्लाध्यः। १३.-संकुठारः प० । १४. यतङ् प्रयले। १५. आस उपवेशने। १६.कुमतभे-प०,८०, म.।