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पञ्चमं पर्व अहो परममैश्वयं किमेतत् कोऽस्मि 'किं विमे । आनमन्त्येत्य मा दूरादित्यासीद् विस्मितः क्षणम्॥२६॥ क्वायातोऽस्मि कुतो वाऽद्य प्रप्रसीदति मे मनः । शय्यातलमिदं कस्य रम्यः कोऽयं महाश्रमः ॥२६५॥ इति चिन्तयतस्तस्य क्षणादवविरुद्ययौ । तेनाबुद्ध सुरः सर्व स्वयंबुद्धादिवृत्तकम् ॥२६६॥
अये, तपःफलं दिव्यमयं स्वर्गो महायुतिः । इमे देवास्समुत्सर्पदेहोचोताः प्रणामिनः ॥२६॥ विमानमेतदुद्भासि कल्पपादपवेष्टितम् । इमा मजुगिरो देव्या शिक्षानमणिन् पुराः ॥२६८॥ अप्सर परिवारोऽय मितो नृत्यति सस्मितम् । गीयते कलमामन्द्रमितश्च मुरवध्वनिः ॥२६९॥ इति निश्चित्य तत्सर्व भवप्रत्ययतोऽवधे। शय्योत्संगे सुखासीनो नानारत्नांशुमासुरे ॥२७॥ जयेश विजयिन् नन्द नेत्रानन्द महायुते । वर्धस्वेत्युदिरो नम्रास्तमासीदन् दिवौकसः ॥२७१॥ सप्रश्रयमथोपेत्य स्वनियोगप्रचोदिताः । ते तं विज्ञापयामासुरिति प्रणतमौलयः ॥२७२।। प्रतीच्छ प्रथमं नाथ सज्जं मजनमङ्गलम् । ततः पूजां जिनेन्द्राणां कुरु पुण्यानुबन्धिनीम् ॥२७३॥ ततो बलमिदं देवं भव(वबलार्जितम् । समालोकय संघः समापतदितस्ततः ॥२७॥ इतः प्रेक्षस्व संप्रेक्ष्याः "प्रेक्षागृहमुपागतः । सलीलभूलतोरोपं नटन्तीः सुरनर्तकीः ॥२७५॥
मनोज्ञवेषभूषाश्च देवीदेवाच"मानय । "देवभूयस्वसंप्राप्तौ फलमेतावदेव हि ॥२७॥ ओरसे नमस्कार करते हुए करोड़ों देवोंके शरीरकी प्रभासे व्याप्त दिशाओं में दृष्टि घुमाकर ललिताङ्गदेवने देखा कि यह परम ऐश्वर्य क्या है ? मैं कौन हूँ ? और ये सब कौन हैं ? जो मुझे दूर-दूरसे आकर नमस्कार कर रहे हैं। ललिताङ्गदेव यह सब देखकर क्षण-भरके लिए आश्चर्यसे चकित हो गया ॥२६३-२६४॥ मैं यहाँ कहाँ आ गया ? कहाँसे आया ? आज मेरा मन प्रसन्न क्यों हो रहा है ? यह शय्यातल किसका है ? और यह मनोहर महान् आश्रम कौनसा है ? इस प्रकार चिन्तवन कर ही रहा था कि उसे उसी क्षण अवधिज्ञान प्रकट हो गया। उस अवधिज्ञानके द्वारा ललिताङ्गदेवने स्वयम्बुद्ध मन्त्री आदिके सब समाचार जान लिये ॥२६५-२६६।। 'यह हमारे तपका मनोहर फल है, यह अतिशय कान्तिमान स्वर्ग है, ये प्रणाम करते हुए तथा शरीरका प्रकाश सब ओर फैलाते हुए देव हैं, यह कल्पवृक्षोंसे घिरा हुआ शोभायमान विमान है, ये मनोहर शब्द करती तथा रुनझुन शब्द करनेवाले मणिमय नपुर पहने हुई देवियाँ हैं, इधर यह अप्सराओंका समूह मन्द-मन्द हँसता हुआ नृत्य कर रहा है, इधर मनोहर और गम्भीर गान हो रहा है, और इधर यह मृदंग बज रहा है। इस प्रकार भवप्रत्यय अवधिझानसे पूर्वोक्त सभी बातोंका निश्चय कर वह ललिताङ्गदेव अनेक रत्नोंकी किरणोंसे शोभायमान शय्यापर सुखसे बैठा ही था कि नमस्कार करते हुए अनेक देव उसके पास आये। वे देव ऊँचे स्वरसे कह रहे थे कि हे स्वामिन् ,आपको जय हो। हे विजयशील, आपसमृद्धिमान हैं। हे नेत्रोंको आनन्द देनेवाले, महाकान्तिमान् , आप सदा बढ़ते रहें-आपके बल-विद्या, ऋद्धि आदिकी सदा वृद्धि होती रहे॥२६७-२७शा तत्पश्चात् अपने-अपने नियोगसे प्रेरित हुए अनेक देव विनयसहित उसके पास आये और मस्तक झुकाकर इस प्रकार कहने लगे कि हे नाथ, स्नानकी सामग्री तैयार है इसलिए सबसे पहले मङ्गलमय स्नान कीजिए फिर पुण्यको बढ़ानेवाली जिनेन्द्रदेवकी पूजा कीजिए । तदनन्तर आपके भाग्यसे प्राप्त हुई तथा अपने-अपने गुटों (छोटी टुकड़ियों)के साथ जहाँ-तहाँ (सब ओरसे) आनेवाली देवोंकी सब सेनाका अवलोकन कीजिए। इधर नाट्यशालामें आकर, लीलासहित भौंह नचाकर नृत्य करती हुई, दर्शनीय सुन्दर देव नर्तकियोंको देखिए । हे देव, आज मनोहर वेष-भूषासे युक्त देवियोंका सम्मान कीजिए क्योंकि
१. के स्विमे अ०, ५०, द०, स० । २. आधयः। ३. अहो । इदं अ०, स०। ४. मुरजध्वनिः द०, अ०, प० । ५. नेत्रानन्दिन् प० । नेत्रानन्दिमहा-द०, स०। ६. उच्चवचनाः । ७. आगच्छन्ति स्म। ८.-निवेदनः अ०, म०, द. ९. सज्जीकृतम् । १०. सुकृतम् । ११. संमः । १२. आलोकय । १३. दर्शनोयाः । १४. नाट्यशालाम् । १५. सत्कुरु । १६. देवत्वस्य ।