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पञ्चमं पर्व
११५ नितान्तपीवरावसौ केयूरकिणकर्कशी । तदास्मोजिमतकाठिन्या मृविमानमुपैयतुः ॥२४॥ 'भाभुग्नमुदरं चास्य विवलीमासंगमम् । निवातनिस्तरनाम्बुसरः शुष्यदिवाभवत् ॥२४॥ 'तपस्तनूनपात्तापाद् दिदीपेऽधिकमेव सः । कनकाश्म इवाध्मातः परां शुद्धिं समुद्वहन ॥२४२॥ असचं तनसंतापं सहमानस्य हेलया। ययुः परीषहामाममास्यास्य संगर ॥२४॥ स्वगस्थीभूतदेहोऽपि यद् व्यजेष्ट परीषहान् । स्वसमाधिबलाद् व्यक्तं स तदासीन्महाबलः ॥२४४।।
मूनि कोकोत्तमान् सिद्धान् स्थापयन् हृदयेऽर्हतः । शिरकवचमस्त्रं च स चक्रे साधुमिस्त्रिमिः ॥२४५॥ चक्षषी परमात्मानमद्राष्टामस्य योगतः। अश्रौष्टां परमं मन्त्रं श्रोत्रे जिहा तमापठत् ॥२४६॥ मनोगर्मगृहेऽईन्तं विधायासौ निरञ्जनम् । प्रदीपमिव निर्धूतध्वान्तोऽमद् ध्यानतेजसा ॥२४॥ द्वाविंशतिदिनान्येष कृतसल्लेखनाविधिः । जीवितान्ते समाधाय मनः स्वं परमेष्ठिषु ॥२४८॥ नमस्कारपदान्यन्त ल्पेन "निभृतं जपन् । ललाटपटविन्यस्तहस्तपकजकुडमलः ॥२४९॥
कोशादसेरिवान्यत्वं देहाजीवस्य भावयन् । भावितास्मा सुखं प्राणानौज्मत् सन्मन्त्रिसाक्षिकम् ।।२५०॥ उन्होंने अपनी अविनाशिनी कान्तिके द्वारा पहलेकी शोभा नहीं छोड़ी थी, वे उस समय भी पहलेकी ही भाँति सुन्दर थे ।।२३९।। समाधिग्रहणके पहले उसके जो कन्धे अत्यन्त स्थूल तथा बाजूबन्दकी रगड़से अत्यन्त कठोर थे उस समय वे भी कठोरताको छोड़कर अतिशय कोमलता को प्राप्त हो गये थे ॥२४०।। उसका उदर कुछ भीतरकी ओर झुक गया था और त्रिवली भी नष्ट हो गयी थी इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो हवाके न चलनेसे तरंगरहित सूखता हुआ तालाब ही हो ।।२४१।। जिस प्रकार अग्निमें तपाया हुआ सुवर्ण पाषाण अत्यन्त शुद्धिको धारण करता हुआ अधिक प्रकाशमान होने लगता है उसी प्रकार वह महाबल भी तपरूपी अग्निसे तप्त हो अत्यन्त शुद्धिको धारण करता हुआ अधिक प्रकाशमान होने लगता था।२४२राजा असह्य शरीर-सन्तापको लीलामात्रमें ही सहन कर लेता था तथा कभी किसी विपत्तिसे पराजित नहीं होता था इसलिए उसके साथ युद्ध करते समय-परीषह ही पराजयको प्राप्त हुए थे, परीषह उसे अपने कर्त्तव्यमार्गसे च्युत नहीं कर सके थे ।।२४३॥ यद्यपि उसके शरीरमें मात्र चमड़ा और हडी ही शेष रह गयी थी तथापि उसने अपनी समाधिके बलसे अनेक परीषहोंको जीत लिया था इसलिए उस समय वह यथार्थमें 'महाबल' सिंह हुआ था ।।२४४॥ उसने अपने मस्तकपर लोकोत्तम परमेष्ठीको तथा हृदयमें अरहंत परमेष्ठीको विराजमान किया था और आचार्य, उपाध्याय तथा साधु इन तीन परमेष्ठियोंके ध्यानरूपी टोप-कवच और अस्त्र धारण किये थे।।२४५॥ भ्यानके द्वारा उसके दोनों नेत्र मात्र परमात्माको ही देखते थे, कान परम मन्त्र (णमोकार मन्त्र) को ही सुनते थे और जिला उसीका पाठ करती थी ।।२४६॥ वह राजा महाबल अपने मनरूपी गर्भगृहमें निर्धूम दीपकके समान कर्ममलकलंकसे रहित अर्हन्त परमेष्ठीको विराजमान कर ध्यानरूपी तेजके द्वारा मोह अथवा अज्ञानरूपी अन्धकारसे रहित हो गया था ॥२४७। इस प्रकार महाराज महाबल निरन्तर बाईस दिन तक सल्लेखनाकी विधि करते रहे। जब आयुका अन्तिम समय आया तब उन्होंने अपना मन विशेष रूपसे पचपरमेष्ठियोंमें लगाया। उसने हस्तकमल जोड़कर ललाटपर स्थापित किये और मन-ही-मन निश्चल रूपसे नमस्कार मन्त्रका जाप करते हुए, म्यानसे तलवारके समान शरीरसे जीवको पृथक् चिन्तवन करते हुए और अपने
१.बाकुञ्चितम् । २. विगतवलीभङ्गः। ३. अग्नितापात। ४. संतप्तः। ५. प्रतिज्ञायां युद्धे च। ६. शिखायाम् । 'शिखा हृदयं शिरः कवचम् अस्त्रम्' चेति पञ्च स्थानानि तत्र पञ्च नमस्कारं पञ्चषा कृत्वा योजयन् इत्यर्थः । ७. 'परमात्मानमद्राष्टामस्य योगतः' अत्र परमात्मशब्देन अर्हन् प्रतिपाद्यते । ध्यानसामर्थ्याबहन् चक्षुर्विषयोऽभूदित्यर्थः । पिहिते कारागारे इत्यादिवत् ८. अशृणुताम् । ९. समाधानं कृत्वा । १०. निश्चलं यथा भवति तथा।