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आदिपुराणम्
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मन्त्रशक्त्या यथा पूर्व स्वयंबुद्धो म्यधाद् बलम् । तथापि मन्त्रशक्स्यैव बलं न्यास्थन् महाबले॥२५१॥ साचिम्यं सचिबेनेति कृतमस्य निरस्ययम् । तदा धर्मसहायत्वं निर्व्यपेक्षं प्रकुर्वता ॥ २५२॥ देहभारमथोत्सृज्य लघूभूत इव क्षणात् । प्रापत् स कल्पमैशानर्मेनल्पसुखसंनिधिम् ॥२५३॥ तत्रोपपादशय्यायामुदपादि महोदयः । विमाने श्रीप्रभे रम्ये लळिताङ्गः सुरोत्तमः ॥२५४॥ यथा वियति वीता साना विद्युद् विरोचते । तथा बैक्रियिकी दिव्या तनुरस्याचिरादमात् ॥ २५५ ॥ नवयौवनपूर्णो ना सर्वलक्षणसंभृतः । सुप्तोत्थितो यथा माति तथा सोऽन्तर्मुहूर्त्ततः ।। २५६ ।। ज्वलत्कुण्डलकेयूरमुकुटाङ्गदभूषणः । खग्वी सदंशुकधरः प्रादुरासीन्महाद्युतिः ॥ २५७॥ तस्य रूपं तदा रेजे निमेषालसकोचनम् । झषद्वयेन निष्कम्पस्थितेनेव सरोजलम् ॥ २५८ ॥ बाहुशाखोज्ज्वलं श्रोमत्तलपल्लव कोमलम् । नेत्रभृङ्गं वपुस्तस्य भेजे कल्पमन्त्रिपश्रियम् ॥२५९॥ ललितं लकिताङ्गस्य दिव्यं रूपमयोनिजम् । इत्येत्र वर्णनास्यास्तु किं वा वर्णनयानया ॥ २६०॥ पुष्पवृष्टिस्तदापप्तन्मुक्ता कल्पद्रुमैः स्वयम् । दुन्दुभिस्तनितं मन्द्रं जजृम्भे रुद्धदिक्तटम् ॥२६१॥ मृदुराधूतमन्दारनन्दनादाहरन् रजः । सुगन्धिराववौ मन्दमनिलोऽम्बुकणान् किरन् || २६२|| ततोऽसौ वलितां किंचिद् दृशं व्यापारयन् 'दिशाम् । समन्तादानमद्द वकोटिदेहप्रभाजुषाम् ।। २६३।। शुद्ध आत्मस्वरूपकी भावना करते हुए, स्वयम्बुद्ध मन्त्रीके समक्ष सुखपूर्वक प्राण छोड़े ।।२४८-२५०॥ स्वयम्बुद्ध मन्त्री जिस प्रकार पहले अपनी मन्त्रशक्ति ( विचारशक्ति) के द्वारा महाबलमें बल (शक्ति अथवा सेना) सन्निहित करता रहता था, उसी प्रकार उस समय भी वह मन्त्रशक्ति (पनमस्कार मन्त्रके जापके प्रभाव ) के द्वारा उसमें आत्मबल सन्निहित करता रहा, उसका धैर्य नष्ट नहीं होने दिया ।। २५१|| इस प्रकार निःस्वार्थ भावसे महाराज महाबलकी धर्मसहायता करनेवाले स्वयम्बुद्ध मन्त्रीने अन्त तक अपने मन्त्रीपनेका कार्य किया ।। २५२॥ तदनन्तर वह महाबलका जीव शरीररूपी भार छोड़ देनेके कारण मानो हलका होकर विशाल सुख - सामग्री से भरे हुए ऐशान स्वर्गको प्राप्त हुआ। वहाँ वह श्रीप्रभ नामके अतिशय सुन्दर विमानमें उपपाद शय्यापर बड़ी ऋद्धिका धारक ललिताङ्ग नामका उत्तम देव हुआ ।।२५३-२५४ || मेघरहित आकाशमें श्वेत बादलों सहित बिजलीकी तरह उपपाद शय्यापर शीघ्र ही उसका वैक्रियिक शरीर शोभायमान होने लगा ||२५५|| वह देव अन्तर्मुहूर्त में ही नवयौवनसे पूर्ण तथा सम्पूर्ण लक्षणोंसे सम्पन्न होकर उपपाद शय्यापर ऐसा सुशोभित होने लगा मानो सब लक्षणोंसे सहित कोई तरुण पुरुष सोकर उठा हो ॥२५६।। देदीप्यमान कुण्डल, केयूर, मुकुट और बाजूबन्द आदि आभूषण पहने हुए, मालासे सहित और उत्तम वस्त्रोंको धारण किये हुए ही वह अतिशय कान्तिमान् ललिताङ्ग नामक देव उत्पन्न हुआ || २५७॥ उस समय टिमकाररहित नेत्रोंसे सहित उसका रूप निश्चल बैठी हुई दो मछलियों सहित सरोवर के जलकी तरह शोभायमान हो रहा था || २५८॥ अथवा उसका शरीर कल्पवृक्षकी शोभा धारण कर रहा था क्योंकि उसकी दोनों भुजाएँ उज्ज्वल शाखाओंके समान थीं, अतिशय शोभायमान हाथोंकी हथेलियाँ कोमल पल्लवोंके समान थीं और नेत्र भ्रमरोंके समान थे || २५९ || अथवा ललिताङ्गदेव के रूपका और अधिक वर्णन करनेसे क्या लाभ है ? उसका वर्णन तो इतना ही पर्याप्त है कि वह योनिके बिना ही उत्पन्न हुआ था और अतिशय सुन्दर था ॥ २६० ॥ उस समय स्वयं कल्पवृक्षोंके द्वारा ऊपरसे छोड़ी हुई पुष्पोंकी वर्षा हो रही थी और दुन्दुभिका गम्भीर शब्द दिशाओंको व्याप्त करता हुआ निरन्तर बढ़ रहा था ।। २६१॥ जलकी छोटी-छोटी बूँदों को बिखेरता और नन्दन वनके हिलते हुए कल्पवृक्षोंसे पुष्पपराग ग्रहण करता हुआ अतिशय सुहावना पवन धीरे-धीरे बह रहा था || २६२॥ तदनन्तर सब
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१. बलं चतुरङ्गं बलं सामर्थ्यम् । २. तदापि ब०, अ०, स०, प० । ३. निरतिक्रमम् । ४. सम्यवस्थानम् । ५. शुभ्रमेषसमन्विता । ६. पुरुषः । ७. भयं श्लोकः 'म' पुस्तके नास्ति । ८. दिक्षु ।