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आदिपुराणम् पारुह्मारामनानावं तितीर्घभवसागरम् । निर्यापकं स्वयंबुद्ध बहु मेने महाबलः ॥२३॥ सर्वत्र समतां मैत्रीमनौत्सुक्यं च भावयन् । सोऽभून्मुनिरिवासंगत्यकबाटेतरोपधिः ॥२३२॥ देहाहारपरित्यागवतमास्थाय धीरधीः । परमाराधनाशुद्धिं स भेजे सुसमाहितः ॥२३॥ प्रायोपगमनं कृत्वा धीरः स्वपरगोचरान् । उपकारानसौ नैच्छत् शरीरेऽनिच्छतां गतः ॥२३॥ तीनं तपस्यतस्तस्य तनिमानमगात् तनुः । परिणामस्ववर्धिष्ट स्मरतः परमेष्टिनाम् ॥२३५॥ भनाशुषोऽस्य गात्राणां परं शिथिलताऽभवत् । नारूढायाः प्रतिज्ञाया व्रतं हि महतामिदम् ॥२३॥ शरद्धन इवारूहकायो ऽभूत् सं रसक्षयात् । मांसासृजवियुक्तंच देहं सुर इवाविमः ॥२३॥ गृहीतमरणारम्मव्रतं तं वीक्ष्य चक्षुषी । शुचेव क्वापि संलीने प्राग्विलासाद् "विरेमतुः ॥२३८॥ कपोलावस्य संशुष्यरसमासत्वचावपि । रूढी कान्स्यानपापिन्या नौमिष्टां प्राक्तनों श्रियम् ॥२३९॥
से ममत्व छोड़ने की प्रतिज्ञा की और वीरशय्या आसन धारण की ।।२३०॥ वह महाबल आराधनारूपी नावपर आरूढ़ होकर संसाररूपी सागरको तैरना चाहता था इसलिए उसने स्वयंबुद्ध मन्त्रीको निर्यापकाचार्य (सल्लेखनाकी विधि करानेवाले आचार्य, पक्षमें-नाव चलानेवाला खेवटिया) बनाकर उसका बहुत ही सम्मान किया ॥२३शा वह शत्रु, मित्र आदिमें समता धारण करने लगा, सब जीवोंके साथ मैत्रीभावका विचार करने लगा, हमेशा अनुत्सुक रहने लगा और बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रहका त्याग कर परिग्रहत्यागी मुनिके समान मालूम होने लगा।।२३२॥
धीर-वीर महाबल शरीर तथा आहार त्याग करनेका व्रत धारण कर आराधनाओंकी परम विशुद्धिको प्राप्त हुआथा, उस समय उसका चित्त भी अत्यन्त स्थिर था।२३३।। उस धीर-वीरने प्रायोपगमन नामका संन्यास धारण कर शरीरसे बिलकुल ही स्नेह छोड़ दिया था इसलिए वह शरीररक्षाके लिए न तो स्वकृत उपकारोंकी इच्छा रखता था और न परकृत उपकारोंकी॥२३४|| भावार्थ-संन्यास मरणके तीन भेद हैं-१ भक्त प्रत्याख्यान, २ इंगिनीमरण और ३ प्रायोपगमन। (१) भक्तप्रतिज्ञा अर्थात् भोजनकी प्रतिज्ञा कर जो संन्यासमरण हो उसे भक्तप्रतिज्ञा कहते हैं, इसका काल अन्तर्मुहूर्त से लेकर बारह वर्ष तकका है। (२) अपने शरीरकी सेवास्वयं करे, किसी दूसरेसे रोगादिका उपचार न करावे । ऐसे विधानसे जो संन्यास धारण किया जाता है उसे इंगिनीमरण कहते हैं । (३) और जिसमें स्वकृत और परकृत दोनों प्रकारके उपचार न हों उसे प्रायोपगमन कहते हैं । राजा महाबलने प्रायोपगमन नामका तीसरा संन्यास धारण किया था ॥२३४|| कठिन तपस्या करनेवाले महाबल महाराजका शरीर तो कृश हो गया था परन्तु पञ्चपरमेष्ठियोंका स्मरण करते रहनसे परिणामोंकी विशुद्धि बढ़ गयी थी।।२३५।। निरन्तर उपवास करनेवाले उन महाबलके शरीरमें शिथिलता अवश्य आ गयी थी परन्तु ग्रहण की हुई प्रतिज्ञामें रंचमात्र भी शिथिलता नहीं आयी थी, सो ठीक है क्योंकि प्रतिज्ञामें शिथिलता नहीं करना ही महापुरुषोंका व्रत है ।।२३६।। शरीरके रक्त, मांस आदि रसोंका क्षय हो जानेसे वह महाबल शरद् ऋतुके मेघोंके समान अत्यन्त दुर्बल हो गया था। अथवा यों समझिए कि उस समय वह राजा देवोंके समान रक्त, मांस आदिसे रहित शरीरको धारण कर रहा था॥२३७॥ राजा महाबलने मरणका प्रारम्भ करनेवाले व्रत धारण किये हैं, यह देखकर उसके दोनों नेत्र मानो शोकसे ही कहीं जा छिपे थे और पहलेके हाव-भाव आदि विलासोंसे विरत हो गये ये ॥२३८॥ यद्यपि उसके दोनों गालोंके रक्त, मांस तथा चमड़ा आदि सब सूख गये थे तथापि
१. विषयेष्वलाम्पट्यम् । २. परिग्रहः। ३. सुष्ठ सन्नरः । ४. तपस्कुर्वतः । ५. अतिकृशत्वम् । ६. अश्नातीत्येवंशीलः अश्वान् न अश्वान् अनश्वान् तस्य अनाशुषः । ७. शस्य भावः । ८. देहो महाबलश्च । ९. विमति स्म। १०. अपसरतः स्म ।