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आदिपुराणम् 'पित्रोरपि निसगेंग कनीयानभवत् प्रियः । प्रायः प्रजात्वसाम्येऽपि कचित् प्रीतिः प्रजायते ॥२०६॥ जनानुरागमुत्साहं पिता दृष्ट्वा कनीयसि । राज्यपटुं बबन्धास्य ज्यायांसमवधीरयन् ॥२०७॥ जयवर्माय निर्वेदं परं प्राप्य तपोऽग्रहीत् । स्वयंप्रमगुरोः पाश्वें "स्वमपुण्यं विगर्हयन् ॥२०८॥ नवसंयत एवासौ यान्तवृद्ध्या महीधरम् । खे खेचरेशमुष्चक्षुर्वीक्ष्यासीत् सनिदानकः ॥२०९॥ महाखेचरमोगा हि भूयासुमेऽन्यजन्मनि । इति ध्यायमसौ दृष्टी वल्मीकाद् मीममोगिना ॥२१०॥ मोगं "काम्यन् विसृष्टासुरिह भूत्वा महाबलः सोऽ'नाशितम्मवान् भोगान् भुक्तेऽद्य खचरोचितान् २११ "ततो मोगेवसावेवं चिरकालमरज्यत । भवदचोऽधुना अत्वा क्षिप्रमेभ्यो विरंस्यति ॥२१२॥ सोऽच रात्री समैक्षिष्ट स्वप्ने दुर्मन्त्रिमिस्त्रिमिः । निमज्यमानमात्मानं बाकात् पके दुरुत्तरे ॥२१३॥ ततो' निर्मळ तान् दुष्टान् दुःपादुद्धतं त्वया । अभिषिक्त स्वमेक्षिष्ट निविष्टं हरिविष्टरे ॥२१॥ दीप्तामेकां च म ज्वाला श्रीयमाणामनुक्षणम् । 'क्षणप्रमामिवालोलामपश्यत् क्षणदाक्षये ॥२१५॥ पला स्वभावतिस्पष्टं त्वामेव "प्रतिपालयन् । भास्ते तस्मात् त्वमाश्वेव गत्वैनं प्रतिबोधय ॥२१६॥ स्वमद्वयमदः पूर्व स्वत्तः श्रुत्वातिविस्मितः । प्रीतो भवद्वचःकृत्स्नं ' स करिष्यत्यसंशयम् ॥२१॥ और उसके बाद उसका छोटा भाई श्रीवर्मा हुआ। वह श्रीवर्मा सब लोगोंको अतिशय प्रिय था ।।२०५।। वह छोटा पुत्र माता-पिताके लिए भी स्वभावसे ही प्यारा था सो ठीक ही है सन्तानपना समान रहनेपर भी किसीपर अधिक प्रेम होता ही है ।।२०६॥ पिता श्रीषेणने ममुष्योंका अनुराग तथा उत्साह देखकर छोटे पुत्र श्रीवर्माके मस्तकपरहीराज्यपट्ट बाँधा और इसके बड़े भाई जयवर्माको उपेक्षा कर दी ।।२०७॥ पिताकी इस उपेक्षासे जयवर्माको बड़ा वैराग्य हुआ जिससे वह अपने पापोंकी निन्दा करता हुआ स्वयंप्रभगुरुसे दीक्षा लेकर तपस्या करने लगा ।।२०।। जयवर्मा अभी नवदीक्षित ही था-उसे दीक्षा लिये बहुत समय नहीं हुआ था कि उसने विभूतिके साथ आकाशमें जाते हुए महीधर नामके विद्याधरको आँख उठाकर देखा। उस विद्याधरको देखकर जयवर्माने निदान किया कि मुझे आगामी भवमें बड़े-बड़े विद्याधरोंके भोग प्राप्त हों। वह ऐसा विचार ही रहा था कि इतनेमें एक भयंकर सपने बामीसे निकलकर उसे डस लिया। वह भोगोंकी इच्छा करते हुए ही मरा था इसलिए यहाँ महाबल हुआ है और कभी तृप्त न करनेवाले विद्याधरोंके उचित भोगोंको भोग रहा है। पूर्वभवके संस्कारसे ही वह चिरकाल तक भोगोंमें अनुरक्त रहा है किन्तु आपके वचन सुनकर शीघ्र ही इनसे विरक्त होगा ।२०९-२१२।। आज रातको उसने स्वप्नमें देखा है कि कि तुम्हारे सिवाय अन्य तीन दुष्ट मन्त्रियोंने उसे बलात्कार किसी भारी कीचड़में फंसा दिया है
और तुमने उन दुष्टों मन्त्रियोंकी भर्त्सना कर उसे कीचड़से निकाला है और सिंहासनपर बैठाकर उसका अभिषेक किया है ।।२१३-२१४। इसके सिवाय दूसरे स्वप्नमें देखा है कि अग्मिकी एक प्रदीप्त ज्वाला बिजलीके समान चंचल और प्रतिक्षण क्षीण होती जा रही है। उसने ये दोनों स्वप्न आज ही रात्रिके अन्तिम समयमें देखे हैं ।२१५।। अत्यन्त स्पष्ट रूपसे दोनों स्वप्नोंको देख वह तुम्हारी प्रतीक्षा करता हुआ ही बैठा है इसलिए तुम शीघ्र ही जाकर उसे समझाओ २१६॥ वह पूछनेके पहले ही आपसे इन दोनों स्वप्नोंको सुनकर अत्यन्त विस्मित होगा और प्रसन्न होकर निःसन्देह आपके समस्त वचनोंको स्वीकृत करेगा ॥२१७।।
१. जननोजनकयोः । २. पुत्रत्वसमानेऽपि । ३. व्यवसायम् । 'उत्साहो व्यवसायः स्यात् सवोर्यमतिशक्तिमाक्' इत्यमरः । ४. अवज्ञां कुर्वन् । ५. आत्मीयम् । ६. निन्दन् । ७. गच्छन्तम् । ८. महीधरनामानम् । ९. भोगस्ते १०,६०, ल०,। १०. भोगं काम्यतीति भोग काम्यन् । भोगकाम-अ०, स० । भोगकाम्यन् द०। ११. सोनाशितभवं भोगान् अ०, स०, ८०। १२. अतृप्तिकरान् । १३. कारणात् । १४. विरक्तो भविष्यति। १५. संत । १६. आत्मानम् । १७. अनन्तरक्षणमेव । १८. तडिद। १९. रात्र्यन्ते । २०. प्रतीक्षमाणः । २१. -क सूक्ष्म स०, अ०, ६०, स०।