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..पञ्चमं पर्व
११३ तृषितः पयसीवान्दात् पतिते चातकोऽधिकम् । 'जनुषान्ध इवानन्धंकरणे परमौषधे ॥२१॥ रुचिमेष्यति सबमें त्वत्तः सोऽद्य प्रबुद्धधीः । दूस्येव मुक्तिकामिन्याः कालन्ध्या प्रचोदितः ॥२१९॥ विद्धि तद्भाविपुण्यर्दिपिशुनं स्वप्नमादिमम् । द्वितीयं च तदीयायुरतिहास निवेदकम् ॥२२०॥ मासमात्रावशिष्टं च जीवितं तस्य 'निश्चिनु । तदस्य श्रेयसे मद्र घटेयास्त्वमशीतकः ॥२२॥ इत्युदीर्य ततोऽन्त दिमगात् सोऽम्बरचारणः । समं सधर्मणादिस्यगतिराशास्य मन्त्रिणम्॥२२२॥ स्वयंबुद्धोऽपि तद्वाक्यश्रवणात् किंचिदाकुलः । एतं त्यावृतत् तस्य प्रतिबोधविधायकः ॥२२३॥ सत्वरं च समासाथ तं च दृष्ट्वा महाबलम् । चारणर्षिवचोऽशेषमाख्यत् स्वप्नफलावधि ॥२२४॥ "हन्त दुःखानुबन्धानां है न्ता धर्मो जिनोदितः । तस्मात् तस्मिन् मतिं धत्स्व मतिममिति चान्वशात् ॥ ततः स्वायुःक्षयं बुद्ध्वा स्वयंबुद्धान्महाबलः । तनुस्यागे मतिं धीमानधत्त विधिवत् तदा ॥२२॥ कृत्वाष्टाहिकमिन्दर्दिः महामहमहापयत् । दिवसान् स्वगृहोद्यानजिनवेश्मनि मक्तितः ॥२२७॥ सुतायातिबलाख्याय दत्वा राज्यं समृद्धिमत् । सर्वानापृच्छय मन्त्र्यादीन् परं स्वातन्त्र्यमाश्रितः॥२२८॥ सिद्धकूटमुपेत्याशु पराध्य जिनमन्दिरम् । सिद्धार्ष्यास्तत्र संपूज्य स "संन्यास्यदसाध्वसः ॥२२९॥
यावजोवं कृताहारशरीरत्यागसंगरः '५ । गुरुसाभि समासद् वीरशय्याममूढधोः ॥२३०॥ जिस प्रकार प्यासा चातक मेघसे पड़े हुए जलमें, और जन्मान्ध पुरुष तिमिर रोग दूर करनेवाली श्रेष्ठ ओषधिमें अतिशय प्रेम करता है उसी प्रकार मुक्तिरूपी स्त्रीको दूतसमान काललब्धिके द्वारा प्रेरित हुआ महाबल आपसे प्रबोध पाकर समीचीन धर्ममें अतिशय प्रेम करेगा ।२१८-२१९।। राजा महाबलने जो पहला स्वप्न देखा है उसे तुम उसके आगामी भवमें प्राप्त होनेवाली विभूतिका सूचक समझो और द्वितीय स्वप्नको उसकी आयुके अतिशय हासको सूचित करनेवाला जानो ।।२२०॥ यह निश्चित है कि अब उसकी आयु एक माहकी ही शेष रह गयी है इसलिए हे भद्र, इसके कल्याणके लिए शीघ्र ही प्रयत्न करो, प्रमादी न होओ ॥२२१॥ यह कहकर और स्वयंबुद्ध मन्त्रीको आशीर्वाद देकर गगनगामी आदित्यगति नामके मुनिराज अपने साथी अरिंजयके साथ-साथ अन्तर्हित हो गये ॥२२२।। मुनिराजके वचन सुननेसे कुछ व्याकुल हुआ स्वयंबुद्ध भी महाबलको समझानेके लिए शीघ्र ही वहाँसे लौट आया ।।२२३।। और तत्काल ही महाबलके पास जाकर उसे प्रतीक्षामें बैठा हुआ देख प्रारम्भसे लेकर स्वप्नोंके फल पर्यन्त विषयको सूचित करनेवाले ऋषिराजके समस्त वचन सुनाने लगा ।।२२४॥ तदनन्तर उसने यह उपदेश भी दिया कि हे बुद्धिमन् , जिनेन्द्र भगवानका कहा हुआ यह धर्म ही समस्त दुःखोंकी परम्पराका नाश करनेवाला है इसलिए उसीमें बुद्धि लगाइए,उसीका पालन कीजिए।।२२५|| बुद्धिमान् महाबलने स्वयंबुद्धसे अपनी आयुका भय जानकर विधिपूर्वक शरीर छोड़ने-समाधिमरण धारण करनेमें अपना चित्त लगाया ॥२२६।। अतिशय समृद्धिशाली राजा अपने घरके बगीचेके जिनमन्दिरमें भक्तिपूर्वक आष्टाहिक महायज्ञ करके वहीं दिन व्यतीत करने लगा ।।२२७॥ वह अपना वैभवशाली राज्य अतिबल नामक पुत्रको सौंपकर तथा मन्त्री आदि समस्त लोगोंसे पूछकर परम स्वतन्त्रताको प्राप्त हो गया ।।२२८।। तत्पश्चात् वह शीघ्र ही परमपूज्य सिद्धकूट चैत्यालय पहुँचा। वहाँ उसने सिद्ध प्रतिमाओंकी पूजा कर निर्भय हो संन्यास धारण किया IR२९|| बुद्धिमान महाबलने गुरुकी साक्षीपूर्वक जीवनपर्यन्तके लिए आहार पानी तथा शरीर
१. जन्मान्धः। २. अन्धमनन्ध करणमनन्धकरणं तस्मिन् । ३. करणं परमौषधम् अ० । ४. स्वल्पत्वम् । ५. निश्चितम्ब०, स० । ६. चेष्टां कुरु । ७. अमन्दः। ८. उक्त्वा । ९.तिरोषानम् । १०. आशीर्वाद दत्वा । -राशस्य ब०। ११. तन्मतम् म०, ५०, ट० । तवभीष्टम् । धर्मवृद्धिमिति यावत् । १२. निजपुरं प्रत्यागतः । १३. हन्त संबोधने, हे महाबल । १४. पातकः । १५. शिक्षामकरोत् । १६. अनयत् ।-महापयन् ब०, स०।१७. संतोषं नीत्वा । १८. संन्यसनमकरोत् । १९. प्रतिज्ञा। .
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